तीखी कलम से

रविवार, 16 अप्रैल 2017

आ गया है फिर सिकन्दर देखिए

2122 2122 212

आ गया  है फिर  सिकन्दर  देखिये ।
हारते  पोरस   का   मंजर   देखिये ।।

लुट रही थी आबरू सड़को पे तब ।
रोमियों को  अब बुलाकर  देखिये ।।

गाँव  जीता  था  अंधेरों   में  कभी।
रौशनी   है  गाँव   जाकर  देखिये ।।

सब  मवाली  भाग कर  जाने  लगे ।
अब चमन में सर  उठाकर  देखिये ।।

बच   रहे   मासूम  कटने  से  यहाँ ।
पाप  का  घटता  समंदर   देखिये ।।

बन्द  होगी  वह  वसूली  इस तरह।
दिख रही खाकी में अंतर   देखिये ।।

खूब  सी  ऍम ओ  मरे  थे  लूट  में ।
जां   बचाते  आज   रहबर  देखिये ।।

हाथियों ने खा लिया  गैरों  का हक़।
पेट में  क्या  क्या  है अंदर देखिये ।।

आ  रहे  उम्मीद  से   मिलने   बहुत ।
चोर  के  बचने  का ऑफर  देखिये ।।

थी वो अय्यासी   में  डूबी  सल्तनत ।
हुक्मरां  का   सर  मुड़ाकर  देखिये ।।

ख़ास   मजहब  से  लुटी  है  औरतें ।
दीजिये हक़  फिर  मुकद्दर  देखिये ।।

             --नवीन मणि त्रिपाठी

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