तीखी कलम से

सोमवार, 26 जून 2017

पूछिये मत क्यों हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं

।। 2122 2122 2122 212 ।।

पूछिये मत क्यो  हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं ।
जिंदगी  गुजरी  है  ऐसे आधियाँ कम पड़ गईं ।।

भूंख के मंजर से लाशों ने किया है यह सवाल ।
क्या ख़ता हमसे हुई थी रोटियां कम पड़ गईं ।।

जुर्म की  हर इंतिहाँ ने कर  दिया इतना असर ।
अब  हमारे मुल्क में भी बेटियां कम पड़ गईं ।।

मान् लें  कैसे उन्हें  है फिक्र जनता  की  बहुत ।
कुर्सियां जब से  मिली हैं झुर्रियां कम पड़ गईं ।।

इस तरह बिकने लगी है मीडिया कीसाख  भी।
जबलुटी बेटीकी इज्जत सुर्खियां कमपड़ गईं ।।

मैच  फिर खेला गया कुर्बानियो  को  भूलकर ।
चन्द  पैसों  के लिए रुसवाइयाँ कम  पड़ गईं ।।

मत कहो हीरो उन्हें  तुम वे खिलाड़ी मर चुके ।
दुश्मनों के बीच जिनकी खाइयां कमपड़ गईं ।।

हो  गया  नीलाम  बच्चों  की पढ़ाई  के  लिए ।
जातियों के फ़लसफ़ा में रोजियाँ कमपड़ गईं ।।

क्यो  शह्र जाने लगा है गांव का वह आदमी ।
नीतियों के फेर में आबादियां  कम पड़ गईं ।।

देखते  ही देखते  क्यो लुट गया सारा  अमन ।
कुछ लुटेरों  के लिए तो बस्तियां कम पड़ गईं ।।

सिर्फ  अपने ही  लिए जीने लगा  है  आदमी ।
देखिए अहले चमन में नेकियाँ कम पड़ गईं ।।

यह  सही  है बेचने वह  भी  गया  ईमान  को ।
गिर गया बाज़ार  सारी बोलियाँ कम पड़ गईं ।।

             --- नवीन मणि त्रिपाठी 
               मौलिक अप्रकाशित 
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