तीखी कलम से

शनिवार, 3 जून 2017

ग़ज़ल --है सुनी उसने भी कल मेरी ग़ज़ल

2122  2122  212

कर  गई  अपनी  पहल  मेरी  ग़ज़ल।
है सुनी  उसने  भी  कल  मेरी ग़ज़ल।।

हर्फ़   चेहरे  पर  उभर  कर  आ  गए ।
इश्क पर  रखती  दखल  मेरी ग़ज़ल।।

सुर्खरूं  होती   गई  वह   बे  हिसाब ।
होठ पर  जाती  मचल  मेरी  ग़ज़ल ।।

तोड़ ले कोई भी  गुल को  शाख से ।
है कहाँ  इतनी  सरल  मेरी  ग़ज़ल ।।

यूँ नज़र  मत आइये  मुझको सनम ।                          देखकर  जाती  बदल  मेरी  ग़ज़ल ।।

मत कहो उसको फरेबी  तुम  कभी ।
बात  पर  रहती  अटल मेरी ग़ज़ल ।।

शेर  की   गहराइयों  में   डूब   कर ।
फिर गई  थोड़ी सँभल  मेरी  ग़ज़ल।।

उसकी सूरत देख कर जब भी लिखी ।
फिर खिली जैसे  कंवल मेरी  ग़ज़ल।।

कुछ  उसूलों  के  तले  यह  दब  गई ।
 पी रही अब  तक गरल मेरी  ग़ज़ल ।।

बह्र  हो  या  काफ़िया  या  वज़्न  हो ।
बाद मुद्दत  के  सफल   मेरी  गज़ल ।।

       नवीन मणि त्रिपाठी

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