तीखी कलम से

सोमवार, 26 जून 2017

ग़ज़ल --फिक्र बनकर तिश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ ।

--------------------ग़ज़ल -------------

2122  2122  2122  212(1)

फिक्र   बनकर  तिश्नगी  देखा  सँवर  जाती है रोज़ ।
उस दरीचे  तक मेरी  सहमी  नज़र जाती  है रोज़ ।।

बेकरारी    साथ   लेकर   मुन्तज़िर   होकर खड़ी ।
एक आहट की खबर पर वह निखर जाती है रोज ।।

सिम्त  शायद   है  ग़लत  उलझे   हुए   हालात    हैं ।
है  मुसीबत  बदगुमां  घर  में  ठहर  जाती  है  रोज़ ।।

जिंदगी   के    फ़लसफ़े   में   है  बहुत    आवारगी ।
ठोकरें  खाने  की  ख़ातिर  दर  बदर जाती है रोज़ ।।

यह   उमीदों  का  परिंदा  भी  उड़े   तो   क्या  उड़े ।
बेरुखी  तो  बेसबब  पर  ही  क़तर जाती  है रोज़ ।।

कुछ    दरिंदों   की   तबाही , जुर्म   जिंदाबाद    है ।
आत्मा  तो  सुर्खियां  पढ़कर  सिहर जाती  है रोज़ ।।

बन   गया  चेहरा  कोई  उसके लिए  अखबार  अब ।
पढ़ शिकन की दास्तां दिल तक खबर जाती है रोज़ ।।

दे  रहा   है  वक्त   मुझको   इस  तरह   से  तज्रिबा ।
आँधियों  के  साथ  में  आफ़त  गुज़र जाती है रोज़ ।।

वस्ल  की  ख़्वाहिश  का  मंजर है सवालों से घिरा ।
देखिए  साहिल  को  छूनें  यह  लहर जाती है रोज़ ।।

क्या  कोई  रिश्ता  है उसका  पूछते  हैं अब  सभी ।
क्यूँ  इसी  कूचे  से वो शामो  सहर  जाती  है रोज़ ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी 
            मैलिक अप्रकाशित 
               कॉपी राइट 

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