तीखी कलम से

सोमवार, 26 जून 2017

ग़ज़ल

*221 2121  1221  212*

कैसे  कहूँ  मैं  आपसे   मुझको  गिला  नहीं ।
चेहरे  से  क्यूँ नकाब अभी तक उठा नहीं ।।

भूखा किसान शाख  से लटका हुआ  मिला ।
शायद  था  उसके  पास  कोई  रास्ता नहीं ।।

नेता  को चुन  रहे  हैं  वही  जात  पाँत  पर ।
जिसने कहा था जात मेरा  फ़लसफ़ा नहीं ।।

मजबूरियों  के  नाम  पे  बिकता  है आदमी ।
तेरे   दयार   में   तो   कोई   रहनुमा   नहीं ।।

मुझसे   मेरा  ज़मीर   नहीं   माँगिये   हुजूर ।
इसकी ही वज़ह से मैं अभी तक मरा नहीं ।।

हालात  आजमा  के  गए  मुझको  बार बार ।
रहमत खुदा की थी कि नज़र से गिरा नहीं।।

उठती  हैं   बेटियां  भी  यहां  रोज  कार  से ।
मत  बोलिये  कि  बाप  यहां गमज़दा नहीं ।।

उलझा दिया चमन है ये मजहब के नाम पर ।
रोटी   से  हुक्मरां   का  कोई  वास्ता  नहीं ।।

चेहरे को  देखकर  वो मुकरते हैं इस  तरह ।
जैसे  हो  उनके  पास  कोई  आईना  नहीं ।।

कोटे  से  कर रहे  हैं सियासत  वो  देश  में ।
पैनी  सी ज़ेहन पर  है  कोई  तबसरा नहीं ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी

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