तीखी कलम से

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

ग़ज़ल -मेरी आशिक़ी क्या अमानत नहीं है

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ख़यानत  की   खातिर  मुहब्बत नहीं है ।
मेरी  आशिकी क्या  अमानत  नहीं  है ।।

नज़र  से हुई  थी  ख़ता  दफ़अतन  जो ।
हमें  उस  ख़ता  से  शिकायत  नहीं है ।।

मिटा   कर   चले   जा   रहे   हैं  उमीदें ।
बची  आप  में  भी  शराफ़त   नहीं   है ।।

चले  आइये  बज़्म   में  रफ़्ता   रफ़्ता  ।
मेरी  आप  से  अब  अदावत  नहीं  है ।।

यकीं कर मेरा   रूठ   कर   जाने  वाले।
मेरे दिल की अब तक इजाज़त नहीं है।।

तेरे  दर  पे आना  मुनासिब कहाँ  अब ।
वहां  आशिकों  की  निज़ामत नहीं  है ।।

शुरूआत  है  ये   बुरे  दिन की  शायद।
दुआवों  से  अब  तो इज़ाफ़त  नहीं है ।।

गुजर जाएंगे मुफ़लिसी के ये  दिन भी ।
बुरा  वक्त  भर  है  कयामत  नहीं   है ।।

करेगा वो  इंसाफ  जुल्मो  सितम  का ।
तुम्हारी   वहां   तो   हुकूमत  नहीं  है ।।

न  उम्मीद रखिये  वफ़ा  की  यहां पर ।
यहां तो  ख़ुदा  की  अक़ीदत  नहीं  है ।।

उसे दिल न देना है कमसिन जिगर  वो ।
मुहब्बत  की  कोई हिफ़ाज़त  नहीं है ।।

जिधर   फेरते  हैं  अदा   से  वो  नज़रें ।
उधर  कोई   बस्ती   सलामत  नहीं  है।।

        ---नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

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