तीखी कलम से

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

ग़ज़ल - शायद कोई नशा है यहां इंकलाब में

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आ   जाइये   हुजूर   जरा  फिर  हिजाब  में ।
ठहरी   बुरी   नजर  है  यहां  माहताब  में ।।

बच्चों  की  लाश पर है तमाशा  जनाब  का ।
औलाद  खो   रहे  किसी  खानाखराब  में ।।

अंदाज आपके  हैं बदलते  अना  के  साथ ।
शायद  कोई   नशा  है  यहां  इंकलाब  में ।।

सत्ता मिली  जो आपको  चलने लगे  हैं दौर ।
डूबे   मिले हैं  आप  भी  महंगी  शराब  में ।।

खामोशियों  के  बीच  जफा  फिर जवाँ हुई ।
आंखों  ने अर्ज कर  दिया  लुब्बे लुआब में ।।

यूँ  ही किया  था जुर्म वो दौलत के नाम पर ।
दो  गज जमीं हुई  है मयस्सर  हिसाब  में ।।

पूछा  वतन का हाल मियां खत को भेजकर।
आया न कोई खतभी अभी तक जबाब में।।

अफसर बिके  हैं  खूब  यहां आंख  बन्द है ।
धब्बा  लगा  रहा  है  कोई  आफ़ताब   में ।।

सारा  यकीन  ढह  गया   हालात  देखकर ।
मिलने  लगे  हैं  जुर्म  भी  अपने शबाब में ।।

रहबर  तेरा  गुनाह  भी  दुनियां को है पता ।
छुपता  है  देर तक  नहीं  चेहरा नकाब  में ।।

उतरा  है  रंग  आपका  तीखे  लगे  सवाल ।
हड्डी  मिली  है आपको  जब से कबाब  में ।।

              -- नवीन मणि त्रिपाठी 
               मौलिक अप्रकाशित

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