तीखी कलम से

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

ग़ज़ल --वो तेरा छत पर बुलाकर रूठ जाना फिर कहाँ

2122 2122 2122 212
वो  तेरा  छत  पर   बुलाकर  रूठ  जाना   फिर  कहाँ ।
वस्ल  के एहसास  पर   नज़रें   चुराना  फिर  कहाँ ।।

कुछ ग़ज़ल में थी कशिश कुछ आपकी आवाज थी ।
पूछता  ही   रह   गया  अगला  तराना  फिर  कहाँ ।।

आरजू   के   दरमियाँ  घायल  न   हो   जाये   हया ।
अब   हया  के   वास्ते  पर्दा   गिराना  फिर   कहाँ ।।

कातिलाना   वार   करती   वो  अदा   भूली   नहीं ।
शह्र  में  चर्चा   बहुत  थी अब निशाना फिर कहाँ ।।

तोड़ते  वो  आइनों   को   बारहा   इस   फिक्र  में । 
लुट  गया  है  हुस्न  का  इतना खज़ाना फिर कहाँ ।।

था   बहुत   खामोश   मैं  जज़्बात  भी  खामोश थे ।
पढ़  लिया  उसने  मेरे दिल  का फ़साना फिर कहाँ ।।

खो  गए  थे  इस  तरह  हम  भी  किसी  आगोश में ।
याद  आया  वो  ज़माना   पर  ठिकाना   फिर कहाँ ।।

उम्र  की  दहलीज  पर   यूँ  ही   बिखरना  था   मुझे ।
वो  लड़कपन ,वो  जवानी, दिन  पुराना  फिर  कहाँ ।।

ढल  चुकी  हैं  शोखियाँ  अब  ढल  चुके  अंदाज  भी ।
अब   हवाओं   में   दुपट्टे    का  उड़ाना   फिर   कहाँ ।।

हुस्न   की  जागीर  पर  रुतबा  था  उसका   बेमिसाल।
झुर्रियों  की  कैद  में   अब  भाव   खाना  फिर  कहाँ ।।

मैकदों   की  राह  से  ग़ुज़रा   तो   ये   आया   खयाल ।
शरबती  आंखों  से  अब  पीना   पिलाना  फिर   कहाँ ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

15 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’हिन्दी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार से निखरी ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  2. बहुत सुन्दर अह्सास को बयां करती गजल। ऐसा पढने को अब मिलता है कहाँ

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  3. वाह्ह्ह...शानदार...गज़ब लिखते है आप।

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  4. वाह !

    बहुत ख़ूब।

    कमाल का है हरेक शेर।

    बधाई।

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    1. "था बहुत खामोश मैं जज़्बात भी खामोश थे ।
      पढ़ लिया उसने मेरे दिल का फ़साना फिर कहाँ ।".......

      दिल को छूते कोमल भाव।

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  5. आदरणीय आपकी रचना अत्यंत सराहनीय बहुत -बहुत बधाई ,आभार "एकलव्य"

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  6. वाह!!!!
    बहुत ही सुन्दर, लाजवाब गजल...

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  7. वाह ! लाजवाब ! बेहतरीन ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीय ।

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