तीखी कलम से

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

ग़ज़ल - ज़रा सम्भल के चलो।

*1212  1122  1212  22*
नई  नई  ये  हुकूमत  जरा  सँभल  के  चलो ।
बढ़ी हुई है लियाकत  जरा सँभल  के चलो ।।
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सुना है मुल्क में  खाकर वो पाक  ही  भजते ।
है आप की भी शिकायत जरा सँभल के चलो ।।

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गुनाह  करके  मिटाना हुआ  बहुत  मुश्किल।
नहीं मिलेगी जमानत जरा  सँभल  के चलो ।।

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वो कह गये   हैं  चलाएंगे  हम भी बुलडोजर ।
ये देखिए तो हिमाकत जरा संभल के चलो ।।

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न जिक्र कर  न  ले पंगा  कभी  भी  औरत  से ।
मिली  है खूब हिदायत  जरा  सँभल  के चलो ।।

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कई.  मुकाम  थे  बाबा  को देखिए   हासिल  ।
मिटी  तमाम  नफ़ासत  जरा  सँभल  के चलो ।।

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तलाक   तीन    से   पर्दा   उठा   दिया   उसने ।
तलाक पर है कयामत  जरा  सँभल  के चलो ।।

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घरों   में    नोट   दबाकर   नही.  रखो   वरना ।
है  जोरदार   नदामत   जरा  सँभल के चलो ।।

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उन्हें   है  वोट  से  मतलब  नजर  उसी पर  है । 
है जातिवाद सलामत  जरा  सँभल  के  चलो ।। 

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उगल रहे  हैं  वो  लारा  को  और  चारा   भी ।
उजड़  गई  है  रियासत  जरा  सँभल के चलो ।।

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वो  हेकड़ी  हुई  है  गुम  जो  पत्थरों   की   थी ।
बड़ी है सख़्त अदालत  जरा  सँभल  के  चलो ।।

        नावीन मणि त्रिपाठी 
      मौलिक अप्रकाशित

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