तीखी कलम से

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

ग़ज़ल-सियाह ज़ुल्फ़ के साये में शाम हो जाये ।

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ये ख्वाहिशें हैं कि दिल तक मुकाम  हो जाये ।
सियाह  ज़ुल्फ़   के  साये  में  शाम  हो जाये ।।

हैं मुन्तज़िर सी ये आंखे कभी तू मिल तो सही।
नए   रसूख़   पे   मेरा   कलाम    हो    जाये ।।

बड़े   गुरुर   से   उसने   उठाई    है    बोतल ।
ये  मैकदा  न  कहीं   फिर  हराम   हो   जाये ।।

फिदा है आज तलक वो भी उस की सूरत पर ।
कहीं  न  वो  भी  सनम  का  गुलाम हो जाये ।।

अदा  में  तेज  हुकूमत   की  ख्वाहिशें   लेकर ।
खुदा  करे  कि  वो  दिल  का निजाम हो जाए ।।

किसी  की  बज्म  में आना  है एक दिन उसको ।
मेरे   नसीब   में   वह     एहतराम    हो   जाये ।।

जफ़ा  की  राह  पे  चलने  लगीं   वफ़ाएँ  सब  ।
चलो वफ़ा  का  ये   किस्सा  तमाम  हो  जाये ।।

नावीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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