तीखी कलम से

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

ग़ज़ल -पता वह चाँद का भी ढूढता है

1222 1222 122
मेरी पहचान खारिज़  कर रहा है ।
जो  मुद्दत  से  मुझे  पहचानता है ।।

खुशामद का हुनर बख़्शा  है रब ने ।
खुशामद  से वो  आगे बढ़ रहा है ।।

जतन कितना करोगे आप  साहब ।
ये भ्रष्टाचार अब  तक फल रहा है ।।

यकीं होता नही जिसको खुदा पर ।
वही   इंसां  खुदा  से   माँगता   है ।।

उसे   ही  डस रहें हैं सांप  अक्सर ।
जो सापों  को  घरों  में पालता है ।।

गया मगरिब में देखो  आज सूरज ।
पता  वह  चाँद  का  भी ढूढता है ।।

मदारी  के  लिए   जो  है  कमाऊ।
वही   बन्दर  हमेशा  नाचता   है ।।

गरीबी में  हुआ जीना है मुश्किल ।
कोई  बाबा  को  बेटी  बेचता  है ।।

नई   सूरत  को  अक्सर  ढूढते  हैं।
यही इंसानियत का फलसफा है ।।

है उनका  दूर  ही  रहना   मुनासिब ।
कहाँ  उन  से   हमारा  वास्ता  है ।।

न जाने क्या  हुआ  है  आदमी को ।
पराये  माल  को   ही  देखता   है ।।

         --- नावीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित

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