तीखी कलम से

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

ग़ज़ल - अंगारो से प्रीत निभाया करता हूँ

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अंगारो   से  प्रीत   निभाया  करता   हूँ ।
ख्वाब जलाकर रोज़  उजाला करता हूँ।।

एक झलक की ख्वाहिश लेकर मुद्दत से ।
मैं  बादल   में  चांद   निहारा  करता  हूँ ।।

एक  लहर  आती  है  बह जाता है सब ।
रेत पे जब जब महल बनाया करता हूँ ।।

शेर   मेरे   आबाद   हुए   एहसान  तेरा ।
मैं ग़ज़लों  में  अक्स  उतारा  करता  हूँ ।।

दर्द  कहीं  जाहिर  न  हो  जाये  मुझसे ।
हंस कर ग़म का राज  छुपाया करता हूँ ।।

पूछ न मुझसे आज मुहब्बत  की  बातें ।
याद  में   तेरी  वक्त   गुजारा  करता  हूँ ।।

सब कुछ सुनकर बात वही वो टाल रहा ।
जिन  बातों  पर  रोज  इशारा करता हूँ ।।

फिर  रिश्तों  के  बीच  मिली  हैं दीवारें ।
जिनको मैं  दिन रात  गिराया करता हूँ।।

मेरी  उल्फ़त  पर  हँसते  हैं  लोग  यहां ।
आसमान  सी  हसरत  पाला  करता हूं ।।

अक्सर   नंगे   हो  जाते  हैं  पाँव  मेरे ।
जब चादर से पांव निकाला  करता  हूँ ।।

साथ   न  देंगे   तूफ़ां  में  उड़  जाएंगे ।
जिन  पत्तों  के  साथ  बसेरा करता हूँ ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी 
              मौलिक अप्रकाशित

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