तीखी कलम से

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

ग़ज़ल - रंग बदला है आदमी शायद

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वक्त के  साथ  खो  गयी  शायद ।
तेरे  होठों  की  वो हँसी शायद ।।

बन रहे  लोग  कत्ल  के मुजरिम।
कुछ तो फैली है भुखमरी शायद ।।

मां का आँचल वो छोड़ आया है ।
एक  रोटी  कहीं  दिखी शायद ।।

है   बुढापे    में    इंतजार   उसे ।
हैं  उमीदें   बची  खुची  शायद ।।

लोग मसरूफ़  अब यहां तक हैं ।
हो  गयी  बन्द  बन्दगी  शायद ।।

खूब  मतलब  परस्त  है  देखो ।
रंग बदला  है आदमी  शायद ।।

वक्त के  साथ  खो  गयी  शायद ।
तेरे  होठों  की  वो हँसी शायद ।।

देखिये  आंख  में  जरा  उनकी।
है मुकम्मल अभी  नमी शायद ।।

मुद्दतों   बाद   रंग   चेहरे   पर ।
इक मुलाकात हो गई  शायद ।।

जिंदगी   मैं  गुजार  भी   लेता ।
हो गयी आपकी  कमी शायद ।।

नेकियाँ   बेअसर    हुईं   सारी ।
हसरतें थीं  बहुत बड़ी  शायद ।।

पूछ कर  हाल  फिर  मेरे घर का ।
कर  गए आप  दिल्लगी शायद ।।

आपकी   हरकतें   बताती   हैं ।
अक्ल से भी है दुश्मनी शायद ।।

जख्म पर ज़ख्म खा  रहे हो तुम।
आंख अब भी नहीं खुली शायद ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित

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