तीखी कलम से

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

ग़ज़ल - छुपती कहाँ है आग दहकती जरूर है

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छुपती  कहाँ  है आग  दहकती  जरूर    है ।
यादों में  उनकी  आंख  फड़कती जरूर है ।।

खुशबू   तमाम  आई  है  उनके  दयार   से ।
गुलशन की वो हवा भी महकती जरूर है ।।

बुलबुल की शोखियों की बुलन्दी तो देखिए।
बुलबुल   बहार में  तो  चहकती  जरूर है ।।

हसरत है देखनेकी तोआशिक मिजाज रख।
चहरे   से  हर  नकाब  सरकती  जरूर   है ।।

रहना जरा सँभल के मुहब्बत की  वस्ल में ।
अक्सर  हया  नज़र से टपकती जरूर है ।।

मतलब परस्तियों  की जमीं पे न घर बना ।
दीवार  एक   दिन  में  दरकती  जरूर  है ।।

जाना अगर है दिल मे तो पहरों पे हो नज़र ।
दरबान की भी आंख  झपकती  जरूर  है ।।

आशिक की हो पहुँचमें यहां हुस्नेगुल तमाम।
गुल  से  लदी हो शाख़  लचकती जरूर है ।।

कमसिन अदा को देख ज़माना ये कह रहा।
इस  उम्र  में  निगाह बहकती   जरूर  है ।।

गायब  है  उसका  चैन  उड़ी नींद रात की ।
पाज़ेब   कोई   रात  खनकती  ज़रूर   है ।।

आती क़ज़ा से पहले ही इजहारे इश्क़  हो ।
प्यासी रही जो  रूह  भटकती  जरूर   है ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी
            मौलिक अप्रकाशित
चित्र साभार 

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