तीखी कलम से

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

ग़ज़ल - तू इस नक़ाब से बाहर ज़रा निकल तो सही

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कफ़स को तोड़  बहारों में आज ढल तो  सही ।
तू इस नकाब से बाहर कभी  निकल  तो सही ।।

तमाम    उम्र    गुजारी    है   इश्क   में   हमने ।
करेंगे  आप   हमें   याद  एक   पल  तो  सही ।।

सियाह  रात   में  आये   वो  चाँद   भी   कैसे ।
अदब के साथ ये लहज़ा ज़रा बदल तो सही ।।

बड़े   लिहाज़   से   पूंछा   है   तिश्नगी   उसने ।
आना ए हुस्न पे इतरा  के कुछ उबल तो सही ।।

झुकी   नज़र   से अदाओं   में मुस्कुरा   देना ।
ऐ दिल सनम की शरारत पे कुछ मचल तो सही।।

बुझा  बुझा  सा  है  मंजर दयार   का  तेरे ।
चराग  बन  के  फिजाओं  में आज  जल  तो  सही ।।

सुलग  रही  है   कई   दिन   से  जिंदगी  कोई ।
सदाएं आपकी करतीं कभी  दखल  तो  सही ।।

जमी   है  वर्फ़   ज़माने   की खूब  रिश्तों   पर ।
बची हो आग तो हंसकर जरा पिघल तो सही ।।

तेरे   लिए  वो   किताबें  ग़ज़ल की  लिखता है ।
असर हो दिल पे तो अपनी सुना ग़ज़ल तो सही।।

सफर  अधूरा  है  मंजिल  अभी   है  दूर  बहुत ।
तू  थोड़ी दूर तलक  मेरे  साथ चल  तो  सही ।।

          --नवीन मणि  त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

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