तीखी कलम से

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

जब आप ही ये आग लगाएं तो क्या करें



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उल्फत में अपना दिल न जलाएं तो क्या करें।
जब आप ही ये आग लगाएं  तो  क्या  करें ।।

मजबूरियों के नाम शिकस्ता है अज़्म भी ।
तीरे नज़र वो  दिल में चुभाएँ तो क्या करें ।।

हम तो वफ़ा के नाम  पे  कुर्बान  हो  गये ।
वो बेवफा ही कह के बुलाएं तो क्या करें ।।

मर्जी खुदा की  थी  जो हमें  इश्क़  हो  गया ।
कुछ लोग अब सवाल उठाएँ  तो क्या  करें ।।

जुल्मो सितम तो आपका  काफूर हो  रहा ।
अब मुस्कुरा के भूल न जाएं तो क्या करें ।।

रक्खा है रह्म मौला ने सबके  लिए  बहुत ।
दैरो  हरम से  दूर  वो  जाएं  तो क्या करें ।।

क्या क्या नहीं किया है मुहब्बत के  वास्ते ।
नजरें वो हम से रोज  चुराएं  तो क्या करें ।।

जाहिद   नहीं  वो  जाम  हमारे  नसीब  में ।
कीमत वो सुबहो शाम बढ़ाएं तो क्या करें ।।

जब उसने  मैकदे  में हमें  फिर  बुला  लिया ।
अब तिश्नगी भी हम न  मिटाएं तो  क्या करें ।।

कुछ तो  हमें  भी  इल्म  जरूरी है  आपसे ।
चहरे से जब नकाब  हटाएँ  तो  क्या  करें ।।

अब कोशिशों पे आपका इल्जाम बन्द हो ।
चलने लगीं खिलाफ हवाएं तो क्या  करें।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित

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