तीखी कलम से

गुरुवार, 10 मई 2018

ग़ज़ल --और वे आइने में सँवरते रहे

212 212 212 212 

'इस  चमन  में   शजर  चन्द  ऐसे    रहे ।
जो  सदा   ज़ुल्म  तूफ़ाँ   का  सहते रहे।।

घर   हमारा  रकीबों   ने   लूटा   बहुत ।
और    वे   आईने   में   सँवरते   रहे ।।

था तबस्सुम का अंदाज  ही  इस  तरह ।
लोग   कूंचे   से  उनके  निकलते   रहे ।।

देखकर जुल्फ को  होश क्यों खो दिया ।
आपके    तो     इरादे   बहकते     रहे ।।

दिल  लगाने  से  पहले  तेरे  हुस्न  को ।
जागकर  रात  भर  हम भी पढ़ते रहे ।।

यह मुहब्बत नहीं और क्या थी सनम ।
लफ्ज़   खामोश  थे  बात  करते  रहे ।।

कैसे  कह  दूं  कि  मुझसे  जुदा आप हैं ।
ख्वाब   में   आप  तो   रोज़ मिलते   रहे ।।

कुछ तो साजिश मुहब्बत में थी आपकी ।
बेसबब  आप  क्यूँ  मुझको  छलते  रहे ।।

खुदकुशी कर लूं हम ये है मुमकिन कहाँ ।
जिंदगी   के   लिए   हम  तरसते    रहे ।।

मैं  सजा  लेता पलकों में तुमको मगर ।
इश्क  में  तुम  भी  चेहरे  बदलते  रहे ।।

कुछ शरारत  लिए  थीं वो अंगड़ाइयां ।
देखकर  उम्र  भर  हम  मचलते  रहे ।।

कर गयी जो असर आपकी वह नजर ।
आज  तक  बेखुदी   में  टहलते   रहे ।।

दो  बदन  जल उठे  आग  ऐसी  लगी ।
मुद्दतों  बाद    हम भी  सुलगते  रहे ।।

          --नवीन मणि त्रिपाठी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें