तीखी कलम से

सोमवार, 18 जून 2018

मगर ये बेसबब रुस्वाइयाँ कुछ और कहतीं हैं

ये माना वक्त की मजबूरियां कुछ  और  कहती हैं।
मग़र ये बेसबब रूसवाइयाँ कुछ और कहती हैं।।

तुम्हारी हर तबस्सुम पे लिखी  है  एक ख़ामोशी ।
सिसकती रूह की तन्हाइयां कुछ और कहतीं हैं।।

यहां बारिश नहीं होगी  इसे  सच  मान लूँ कैसे ।
सबा के हुस्न की अँगड़ाइयां कुछ और कहती हैं ।।

दुआएं मांग लाया था खुदा से कुछ सुकूँ खातिर।
यहाँ तो ज़िंदगी की आँधियाँ कुछ  और कहतीं हैं।।

किसी दामन पे  लग  जाए न कोई  दाग़ उल्फ़त में ।
नज़र से हो रहीं गुस्ताख़ियां कुछ और कहतीं हैं।।

जरा कह देना दरिया से सँभल कर वस्ल तक आये ।
समंदर की दिखीं बेचैनियां कुछ और कहतीं हैं।।

गुज़र जाती मेरी इक शाम तेरी बज़्म में लेकिन।
रक़ीबों से मिली दुश्वारियां कुछ और कहतीं हैं।

निवाले गैर हाज़िर हैं यहां तो भूख का मंजर।
तुम्हारे शह्र की तो रोटियाँ कुछ और कहतीं हैं।।

निखारो मत उन्हें तनक़ीद कर अच्छी हिदायत से।
दिलों के बीच की ये खाइयाँ कुछ और कहतीं हैं।।

मनाकर दिल को मैं खामोश हो जाता यहां लेकिन।
अना के साथ ये रानाइयाँ कुछ और कहती हैं।।

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