तीखी कलम से

सोमवार, 18 जून 2018

जी रहे हम बेनमाज़ी जिंदगी

2122 2122 212
आँख   मुद्दत   से   चुराती   जिंदगी ।
लग  रही  थोड़ी  ख़फ़ा  सी जिंदगी ।।

तोड़ती   अक्सर   हमारी  ख्वाहिशें ।
हो  गयी  कितनी  सियासी  जिंदगी ।।

सिर्फ मतलब पर किया सज़दा उसे ।
जी   रहे   हम   बेनमाज़ी   जिंदगी ।।

रोटियों  के  फेर में  कुछ  इस  तरह ।
मुद्दतों  तक   तिलमिलाई   जिंदगी ।।

हम  जमीं  पर  पैर  पड़ते  रो  पड़े ।
दे  गयी   पहली  निशानी   जिंदगी।।

मुन्तज़िर  है मौत उसकी  याद  में ।
अब नहीं कुछ गुन गुनाती जिंदगी ।।

मैं उसे  पढता  रहा  हूँ   उम्र   भर ।
एक  अनसुलझी  कहानी  जिंदगी।।

कौन कितने दिन जिया है पूछ मत ।
ख़ास  ये   कैसी  गुजारी   जिंदगी ।।

ख्वाहिशें  बाकी रहीं  सबकी  यहाँ ।
साथ कब किसका निभाई जिंदगी ।।

देखिये   कीड़े  मकोड़ो   की   तरह ।
बस्तियों की  बिलबिलाती  जिंदगी ।।

दाँव  पर  बस  दाँव  लगते  जा  रहे ।
है   बड़ी  शातिर  जुआरी   जिंदगी ।।

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