तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

जब उभरा है अक्स तेरा पैमाने में

22 22 22 22 22 2

भीड़  बहुत   है  अब   तेरे   मैख़ाने   में ।
लग जाते  हैं दाग़ सँभल कर  जाने  में ।।

महफ़िल में चर्चा है उसकी फ़ितरत पर ।
दर्द  लिखा है क्यों उसने  अफ़साने  में ।।

इस  बस्ती में  मुझको तन्हा मत  छोडो ।
लुट  जाते   हैं  लोग   यहाँ   वीराने   में ।।

वह भी अब रहता है  खोया  खोया  सा ।
कुछ  तो   देखा   है  उसने   दीवाने  में ।।

 होश   गवांकर   लौटा  हूँ   मैख़ानों   से।
जब  उभरा  है  अक्स  तेरा   पैमाने  में ।।

वक्त   मुदर्रिस  बनकर   ही   समझायेगा । 
ज़ाया  मत  कर  जोश  उसे  समझाने  में ।।

जेब  और   सत्ता   से   है  उनका   रिश्ता । 
कौन   सुनेगा   बात   तुम्हारी   थाने   में ।।

राज़  खोलती   मक्तूलों  की  आँखें  सब ।
देर  लगी   है  राहत   को   पहुँचाने   में ।।

महँगा  है   बाज़ार  मुहब्बत   का   यारो ।
आशिक  बिकते इश्क़ यहां  फरमाने  में ।।

कैसे  कह  दूँ   है  दुनिया  महफूज़   तेरी ।
मिलते   हैं  बारूद  बहुत  तहखाने   में ।।

मत छोड़ो कल पर कामों का बोझ कभी ।
आ  जाती  है  मौत  यहाँ  अनजाने में ।।

                --नवीन मणि त्रिपाठी 
              मौलिक अप्रकाशित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें