तीखी कलम से

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे

2122 1122 1122 22

कुछ धुंआ घर के दरीचों से उठा हो जैसे ।
फिर कोई शख्स रकीबों से जला हो जैसे ।।

बादलों में वो छुपाता ही रहा दामन को ।
रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे ।।

जुल्म मजबूरियों के नाम लिखा जायेगा ।।
बन के सुकरात कोई ज़ह्र पिया हो जैसे ।।

खैरियत पूँछ के होठों पे तबस्सुम आना ।
हाल ए दिल मेरा तुझे खूब पता हो जैसे ।।

बस जफाएँ ही जफाएँ हैं तेरी महफ़िल में ।
ज़ख़्म सीने का तेरे और हरा हो जैसे ।।

इस  तरह घूर  के  देखा  है उन्होंने हमको।
उनकी  नजरों  में  हमारी  ही  ख़ता हो जैसे ।।

राज़ से पर्दा उठाती हैं ये आँखे तेरी ।
मुन्तज़िर हो के तू मुद्दत से खड़ा हो जैसे ।।

खुशबू ए ख़ास बताती है पता फिर तेरा ।
तेरे गुलशन से निकलती ये सबा हो जैसे ।।

लोग पोरस की तरह हार गए हैं शायद ।।
वो सिकन्दर सा ज़माने से लड़ा हो जैसे ।।

एक मुद्दत से मियां होश में मिलते ही नहीं ।
आपको हुस्न करीने  से  डसा हो जैसे ।।

शोर बरपा है बहुत तिश्नगी के आलम में ।
आज मैख़ाने में हंगामा हुआ हो जैसे ।।
           --नवीन मणि त्रिपाठी 
           मौलिक अप्रकाशित

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