तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

हटा नक़ाब फ़िज़ा में ज़माल कर तो सही

1212 1122 1212 22/112
खिज़ां  के दौर में जीना मुहाल कर  तो सही ।
मेरी वफ़ा पे  तू  कोई  सवाल  कर तो सही ।।

है इंतकाम  की  हसरत अगर जिग़र  में तेरे ।
हटा नकाब फ़िज़ा में  जमाल  कर तो सही ।।

निकल  गया  है तेरा चाँद देख  छत  पे ज़रा ।
तू  जश्ने  ईद में मुझको हलाल कर तो सही ।।

बिखरता  जाएगा  वो  टूट कर शजर से यहां ।
निगाह से तू ख़लिश की मज़ाल कर तो सही ।।

मिलेंगे  और  भी  आशिक तेरे  जहां  में अभी ।
तू अपने हुस्न की कुछ देखभाल कर तो सही ।।

ऐ अब्र दम है तो  सावन सा इस जमीं पे बरस ।           
तपिश में जलते गुलों को निहाल कर तो सही ।।

यहां तो कुर्सियां मिलती हैं कातिलों को सनम ।
मुसलमां  हिन्दू  में  दंगा- बवाल  कर तो सही ।।

तुझे  खुदा भी  मैं  शिद्दत  से मान जाऊं मगर ।
सियाह  रात  है  कोई  कमाल  कर  तो  सही ।।

तिज़ारतों  का  असर  है  मुहब्बतों   पे   बहुत ।
तू  अपने  भाव  में थोड़ा  उछाल कर तो सही ।।

ज़माना  लौट  भी  सकता  है हसरतों के  लिए ।
ऐ  हुक्मरान  सितम  पर  मलाल  कर तो सही ।।

गली से निकला है तू फिर से अजनबी की तरह ।
मेरे  अज़ीज़   मेरा   भी  खयाल  कर  तो  सही ।।

        मौलिक अप्रकाशित
        नवीन मणि त्रिपाठी

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