तीखी कलम से

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

अंधेरों का मौसम बदलता नहीं है

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अंधेरों    का  मौसम   बदलता   नहीं    है ।
मेरा   चाँद   घर   से   निकलता  नहीं   है ।।

जरा  उनसे   पूछो  उजालों   की   कीमत ।
दिया  जिनकी  बस्ती  में  जलता  नहीं  है।।

लुटेगा  वो   आशिक   यहां   दिन   दहाड़े ।
मुहब्बत   पे  अब   जोर  चलता  नहीं   है।।

वो    है  चांदनी  रात  का   मुन्तजिर  अब ।
निगोड़ा  ये   सूरज  भी  ढलता  नहीं   है ।।

नज़र  लग  गई  क्या  ज़माने  की  उसको ।
कबूतर  वो   छत   पर  टहलता   नहीं  है ।।

तबस्सुम  के   बदले  वो  जां  मांग  बैठा ।
जिसे  लोग  कहते   हैं  छलता   नहीं  है ।।

तुझे   तज्रिबा    है   तो    आ   मैकदे   में ।
कदम  जाम  पी  कर   सँभलता  नहीं  है ।।

महकते    गुलों    ने    किया   है    इशारा ।
यूँ   ही   कोई   भौरा   मचलता   नहीं   है ।।

खुदा भी अजब है अजब उसकी फ़ितरत ।
किया   मिन्नतें   पर   पिघलता  नहीं   है ।।

लगीं  ठोकरें  तो  वो   हँस  करके  बोला ।
मुकद्दर  में   जो  है  वो  टलता  नही   है ।।

बड़ी   इल्तिजा   है   कि  तू  घर  पे  आये ।
खतों  से  तो  मन  अब  बहलता  नहीं  है ।।

है   बर्दास्त  सबको  सितम  की  ज़लालत ।
लहू  अब   किसी   का  उबलता  नहीं  है ।।

न  कर आजमाइस  पकड़ने  की  उसको ।
कफ़स   में  परिंदा  जो  पलता   नही  है ।।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

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