तीखी कलम से

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो

ग़ज़ल 
2122 2122 212 

आज  उनका  है ज़माना  चुप रहो ।
गर  लुटे  सारा  खज़ाना  चुप रहो ।।

क्या  दिया है पांच  वर्षों  में   मुझे ।
मांगते  हो  मेहनताना  चुप  रहो ।।

रोटियों   के  चंद  टुकड़े  डालकर ।
मेरी  गैरत  आजमाना  चुप   रहो ।।

मंदिरों मस्ज़िद  से  उनका  वास्ता ।
हरकतें  हैं  वहिसियाना  चुप  रहों ।।

लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये  सपने दिखाना चुप रहो ।।

दांव  तो  अच्छे  चले थे  जीत  के ।
हार पर अब तिलमिलाना चुप रहो ।।

दी  गई  नादान  को बन्दूक  जब ।
बन  गया खुद ही निशाना चुप रहो ।।

हम तुम्हारी पढ़ चुके फ़ितरत मियाँ ।
अब  मुझे  अपना  बनाना  चुप रहो ।।

हक़  हमारा  छीन  कर  तुम  ले गए ।
और अब हमको लुभाना चुप रहो ।।

हम गरीबों  का  उड़ाया  है मज़ाक ।
हाले दिल  पर मुस्कुराना चुप रहो ।।

इन्तकामी   हौसला   मेरा  भी   है ।
धूल  तुमको  है  चटाना  चुप  रहो ।।

       -- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी 
         मौलिक अप्रकाशित

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