तीखी कलम से

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई

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तरन्नुम बन  ज़ुबाँ  से  जब  कभी  निकली  ग़ज़ल  कोई ।
सुनाता  ही   रहा   मुझको  मुहब्बत   की  ग़ज़ल   कोई ।।

बहुत   चर्चे  में  है  वो  आजकल   मफ़हूम  को  लेकर ।
जवां   होने   लगी  फिर  से  पुरानी  सी  ग़ज़ल  कोई ।।

कभी   तो   मुस्कुराती   है   कभी   ग़मगीन   होती    है  ।
हर  इक इंसान  को  बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।

तुम्हें    देखा  जो  मैंने  और  बाकी  शेर   कह  डाले ।
हुई   है   बाद   मुद्दत    के   यहाँ    पूरी    ग़ज़ल  कोई ।। 

सुना   देने   की  बेचैनी   दिखी   है   उसके   चेहरे   पर ।
किसी  की  याद  में  जो  रात  भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।

हजारों  लफ्ज़  भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे   हुस्न   की   तारीफ़  में   बहकी   ग़ज़ल   कोई ।।

यहाँ  दीवानगी  की  हद  से   गुज़रा  है  ज़माना   तब ।
हमारे  साज़  पर  जब  जब  तेरी  सजती ग़ज़ल कोई ।।

अरुजी  से   कहा   मैंने  कवाफी बह्र   से  पहले ।
जिग़र  का  खून  भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।

         डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
         मौलिक अप्रकाशित

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