तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम

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गुल ,सितारा ,चाँद का टुकड़ा समझ बैठे थे हम 
बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम ।।

यहभी इक धोका ही था जो धूप में तुझको सराब।
तिश्नगी के वास्ते दरिया समझ बैठे थे हम।।

अब मुहब्बत से वहाँ आबाद है इक गुलसिताँ ।
जिस ज़मीं को वक्त पर सहरा समझ बैठे थे हम ।।

याद है तेरी अना ए हुस्न और रुसवाइयाँ ।
इश्क़ को यूँ ही नहीं महंगा समझ बैठे थे हम ।।

जब बुलन्दी से गिरे बस सोचते ही रह गए ।
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम ।।

इस तरह रोशन हुई आने से तेरे बज़्म वो ।
स्याह शब में शम्स का जलवा  समझ बैठे थे हम ।।

बारहा झुक कर हुआ वह नाग का हमला ही था ।
कल तलक जिसको तेरा सज़दा समझ बैठे थे हम ।।

ये भी क्या किस्मत रही सागर वही उथला मिला ।
जिस समुंदर को बहुत गहरा समझ बैठे थे हम ।।

        डॉ नवीन मणि त्रिपाठी 
शब्दार्थ -
बेख़ुदी - होश में नहीं होना 
सराब - मृग मरीचिका
सहरा - रेगिस्तान
तिश्नगी - प्यास 
दरिया - नदी
स्याह शब - काली रात 
शम्स - सूरज 
रोशन - प्रकाशित
बज़्म - महफ़िल
अना ए हुस्न - सुंदरता का अहं 
सज़दा - नमस्कार, नमन

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