तीखी कलम से

रविवार, 15 मार्च 2020

शरीफ़ लोग मुखौटे बदल के देखते हैं

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न  पूछिये  कि  वो  कितना  सँभल के देखते हैं ।
शरीफ़   लोग  मुखौटे   बदल   के   देखते   हैं ।।

अज़ीब  तिश्नगी   है  अब   खुदा  ही  खैर  करे ।
जुबाँ से आप भी अक्सर फिसल के देखते हैं ।।

पहुँच  रही है मुहब्बत   की  दास्ताँ  उन   तक ।
हर  एक  शेर  जो  मेरी  ग़ज़ल  के  देखते  हैं ।।

ज़नाब  कुछ  तो  शरारत   नज़र  ये  करती   है ।
यूँ  बेसबब   ही    नहीं वो  मचल के  देखते  हैं ।।

गुलों  का  रंग  इन्हें  किस   तरह   मयस्सर  हो ।
ये  बागवान  तो  कलियां  मसल  के  देखते  हैं ।।

ज़मीर  बेच   के  जिंदा   मिले   हैं  लोग  बहुत  ।
तुम्हारे  शह्र  में  जब  भी  टहल  के  देखते  है ।।

न जाने  क्या  हुआ  जो   बेरुख़ी  सलामत   है ।
हम उनके दिल के जरा पास चल के देखते हैं ।।

ये  इश्क़  क्या  है  बता  देंगे  तुझको  परवाने ।
जो शम्मा के लिए हर शाम जल के देखते हैं ।।

हुआ  है  हक़  पे  बहुत  जोर  का  ये हंगामा ।
गरीब  क्यूँ  यहाँ  सपने महल  के  देखते  हैं ।।

बचाएं दिल को सियासत की साज़िशों से अब ।
ये   लीडरान  मुहब्बत   कुचल  के  देखते हैं ।।

वही   गए   हैं   बुलंदी   तलक   यहां    यारो ।
जो अपने वक्त  के सांचे में ढल के देखते  हैं ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी
           मौलिक अप्रकाशित

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