तीखी कलम से

मंगलवार, 22 मार्च 2022

बेदर्द ज़माना क्या जाने ,ये जख़्म कहाँ तक गहरा है

 ग़ज़ल

221 1222 22 221 1222 22


आंखों से निकलता दरिया बस, ख़ामोश इशारा करता है ।।

बेदर्द ज़माना क्या जाने ,ये जख़्म कहाँ तक गहरा है ।।


उम्मीद करूँ क्या मैं तुम से ,तुम साथ निभाआगे मेरा ।।

संसार से जाने वाला जब, हर एक मुसाफ़िर तन्हा है ।।


हैं जलते मकां जलती लाशें ,और खूब जलीं घर की खुशियां ।।

इस अहले वतन की सड़कों से ,ऐसा ही उजाला देखा है ।।


ये वक्त है जुमलेबाजों का , बहती है यहाँ उल्टी गंगा ।

है फ़िक्र नहीं जिसको रब की, दुनिया में उसी का जलवा है ।।


बदली हैं वतन की तस्वीरें बदला है ज़माना तब यारो ।

विश्वास बड़ी मुश्क़िल से जब दुनिया से हमारा टूटा है ।।


ये देश नहीं बिकने देंगे था जिसका वतन से ये वादा ।

पुरखों की निशानी चुन चुन कर वो शख़्स खुशी से बेचा है ।।  


हैं  क़ैद  परिंदे मुद्दत से, चर्चा ए रिहाई  क्या  करना ।

सय्याद  ही जब आज़ादी का, हर बार मुक़द्दर लिखता है ।।


                           -- नवीन

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