तीखी कलम से

रविवार, 1 मई 2016

गीत

" नवगीत "

हो गयी बिम्बित किसी अनुबन्ध की अभिव्यक्ति सी ।
वासना  की  ध्वनि   सदा  गुंजित  हुई  अतृप्ति  सी ।।

मेघ  अभिशापित धरा  को  देखता  है ।
क्यों कुमुदिनी पर भ्रमर की रिक्तता है ।
स्फुटित  स्वर  में  प्रणय  संलिप्तता है ।
मौन  पर   स्थिर   हुई   स्निग्धता  है ।।

फिर उपेक्षित सर्जना कुंठित लगी परित्यक्ति सी ।
वासना की ध्वनि  सदा गुंजित  हुई अतृप्ति सी ।।

कुछ विहग की रीति में भी द्वन्द होगा ।
चिर व्यथाओ में  छिपा आनंद  होगा ।।
कुछ क्षुधा का वेग किंचित मन्द होगा ?
वाटिका में क्या सुलभ मकरन्द होगा ?

हिमखण्ड से निकली नदी बहने लगी अनुरक्ति सी।
वासना  की  ध्वनि  सदा  गुंजित  हुई  अतृप्ति सी ।।

बाँसुरी   की  प्रीति  अधरों  से  सदा  है ।
राग  का  स्वर  किन्तु  प्रहरों से बंधा है ।।
सेतु  का  विस्तार  लहरों  से  सजा  है ।
ज्वार का उन्माद कब किसको पता है ।।

रक्तिम आभा को लिए तुम नेह की निष्पत्ति सी ।
वासना  की  ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।

व्योम  में अनुनाद  की आवृत्ति  जीवित ।
कण्ठ  से  अनुराग  के  है गीत मण्डित ।।
हो  रही  कोई  बसन्ती  गन्ध  मुखरित ।
हाँ किसी मधुमास का यौवन सुशोभित ।।

अब घटा समदृश्य अलकें हो गयीं आसक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा  गुंजित  हुई अतृप्ति सी।।

उर के अंतर  में  लिखी तुम  कामना हो ।
सिद्ध  जीवन  मन्त्र की तुम साधना हो ।।
छंद  की  कल्पित  समर्पित  भावना  हो ।
तुम निशा  की  जीत की  प्रस्तावना  हो ।।

है दृष्टि से तेरी छुवन अब पीर की उन्मुक्ति सी ।
वासना की ध्वनि सदा गुंजित हुई अतृप्ति सी ।।

                         -- नवीन मणि त्रिपाठी

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