तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

ऐ अब्र ज़रा आग बुझाने के लिए आ

221-1221-1221-122.
तपती जमीं  है आज तू छाने  के  लिए आ ।
ऐ  अब्र  जरा  आग  बुझाने  के  लिए आ ।।

यूँ ही न गुजर जाए कहीं तिश्नगी  का  दौर ।
तू   मैकदे  में   पीने  पिलाने  के लिए आ ।।

ये जिंदगी तो हम ने गुज़ारी है खलिस में ।
कुछ दर्द मेरा  अब तो बटाने के  लिए आ ।।

जब  नाज़  से  आया है कोई  बज़्म में  तेरी ।
क़ातिल तू हुनर अपना दिखाने के लिए आ।।

शर्मो हया है तुझ में तो वादा निभा  के  देख ।
मेरी  वफ़ा  का कर्ज  चुकाने  के  लिए आ ।।

टूटे न मुहब्बत का भरम इस जहाँ से अब ।
मेरे  लिए  तू  छोड़ , ज़माने  के लिए आ ।।

तन्हाइयों  में  चैन  मयस्सर  तुझे  है  कब।
अम्नो  सुकूँ  से रात  बिताने  के लिए आ ।।

खो  जाए  उमीदें  न  कहीं  वस्ल  की  मेरी ।
सोया  है  मेरा ख्वाब  जगाने  के  लिए आ ।।

चर्चा   में  तेरी   खूब   रही  सख़्त   हुकूमत ।
अब  हुक्म मेरे  दिल पे चलाने के लिए आ ।।

इल्जाम   लगा  बैठे   गुनाहों  के  तरफ़दार ।
गर  हो  सके  तू  नाज़  उठाने के लिए आ ।।

आती  नहीं  है  नींद तस्व्वुर  की जमीं  पर ।
ऐ हुस्न  मेरा  होश  मिटाने  के  लिए आ ।।

              -नवीन मणि त्रिपाठी

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