तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

बात ही बात में रात ढलती रही

212 212 212 212
जिंदगी   रफ़्ता   रफ़्ता   पिघलती   रही ।
आशिकी  उम्र  भर  सिर्फ  छलती  रही ।।

देखते   देखते   हो    गयी   फिर   सहर ।
बात   ही   बात   में   रात   ढलती  रही ।।

सुर्ख लब पर  तबस्सुम  तो  आया  मगर ।
कोई  ख्वाहिश जुबाँ पर  मचलती  रही ।।

इक  तरफ  खाइयाँ  इक  तरफ  थे  कुएं ।
वो   जवानी   अदा   से   सँभलती  रही ।।

जाम जब आँख से उसने छलका  दिया ।
मैकशी   बे अदब   रात   चलती   रही ।।

देखकर अपनी महफ़िल में महबूब  को।
पैरहन   बेसबब    वह   बदलती   रही ।।

यूँ  ही ठुकरा गया हुस्न जब  इश्क़  को ।
तिश्नगी   उम्र  भर   हाथ  मलती  रही ।।

उस परिंदे की फितरत  है उड़ना  बहुत ।
बे  वज्ह  आपको   बात  खलती  रही ।।

बच गए हम तो क़ातिल नज़र से सनम ।
मौत  आंगन  में  आकर  टहलती  रही ।।

रेत    मानिंद    सहरा    में   वो हाथ की ।
मुट्ठियों   से   हमारी   फिसलती   रही ।।

दिल जलाने की साजिश लिए साथ में ।
वो   हमारी  गली  से  निकलती रही ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी 
       - मौलिक अप्रकाशित

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