तीखी कलम से

रविवार, 4 नवंबर 2018

1222 1222 1222 1222
महल  टूटा  जो ख्वाबों  का बड़ा ख़तरा  नज़र  आया ।
गुलिस्ताँ  जिसको  समझा  था  वही  सहरा  नजर आया ।।

बहुत  सहमा  है  तब  से  मुल्क  फिर  खामोश  है  मंजर।
उतरते   ही  मुखौटा   जब   तेरा  चेहरा   नजर   आया ।।

अजब  क़ानून  है  इनका  मिली  है   छूट   रहजन   को ।
मगर   ईमानदारों    पर    बड़ा   पहरा    नज़र   आया ।।

सियासत   छीन   लेती   होनहारों   के   निवालों    को ।
हमारा   दर्द   कब  उनको   यहाँ  गहरा  नजर  आया ।।

वो  भूँखा  चीखता  हक   माँगता  मरता  रहा   लेकिन ।
मेरे  घर  का  कोई  मुखिया  मुझे  बहरा  नजर आया ।।

बहुत   बेख़ौफ़  होकर  अम्न  का  सौदा  किया  उसने ।
चमन में जब तलक  अम्नो सुकूँ  ठहरा  नजर  आया ।।

गरीबों   पर  शिकारी  भेड़िया  तब तब  किया  हमला ।
लहू  का  जब  उसे  कोई  कहीं  कतरा  नज़र  आया ।।

जिसे   हर   हाल  में   अपनी   बड़ी   कुर्सी  बचानी  है ।
वही  जनता  की  नजरों  से  बहुत  उतरा  नज़र आया ।।

यहाँ  तो  लोग  पढ़  लेते  हैं  साहब  आपकी  फ़ितरत ।
नये जुमलों  से  ये मंजर बहुत बिखरा नज़र  आया ।।

खुलेंगी  दर  परत  दर  साजिशें  बेशक  करप्शन  की ।
कोई  हाकिम  तुम्हारी  बात  से  मुकरा  नज़र  आया ।।

जो   चर्चा    छेड़    दी    मैंने   तुम्हारे   कारनामे   पर ।
जुबां  पर  दर्द  लोगों  का  बहुत  उभरा  नज़र  आया ।।

हजारों   कोशिशों   के   बाद  भी  पहुँचा   नहीं   कोई ।
तुम्हारे  दिल  का तो रस्ता बहुत  सँकरा  नज़र  आया ।।
          -नवीन मणि त्रिपाठी
          मौलिक अप्रकाशित

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