तीखी कलम से

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

घरों से उठीं अर्थियां कैसे कैसे

 ग़ज़ल


122 122 122 122


न पूछो ये निकली है जाँ कैसे कैसे ।

चलीं अम्न पर गोलियां कैसे कैसे ।।


बताते हैं वो अश्क आंखों में लेकर 

गिराया गया ये मकां कैसे कैसे ।।


ख़बर ही नहीं है ये क़ातिल को शायद ।

घरों से उठीं अर्थियां कैसे कैसे ।।


पता है ज़माने को परदा न डालो ।

मिली तुमको ये कुर्सियां कैसे कैसे ।।


हकीक़त छुपाने की कोशिश तो देखो ।

बनाई  गईं   सुर्खियां   कैसे   कैसे ।।


उजाड़ा है किसने ये गुलशन हमारा 

लिखे ये कलम  दास्ताँ  कैसे  कैसे ।।


वो खा जाते हैं यार अरबो की रिश्वत

यहाँ  मुल्क  में  हुक्मरां  कैसे  कैसे ।।


लगे दाग़ ज्यादा हैं जमहूरियत पर ।

धुलेंगे भला हम निशां कैसे कैसे ।।


      डॉ नवीन मणि त्रिपाठी

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