तीखी कलम से

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

जा के देख


वो   समंदर  में   हुई   बे  नकाब  जा  के  देख।
नदी में  तिश्नगी  है  बे   हिसाब   जा  के  देख।।

दावते  इश्क  की उसको भी  बे  सुमार  मिली ।
सारे  चेहरे  पे  है  कैसा  रुआब  जा  के देख।।

जब  मुहब्बत  ने  तिजारत से  दोस्ती कर ली।
रात  होंने  लगी  कितनी  ख़राब  जा के देख।।

तोड़  जाते  हैं अदा से जो  दिलों  को अक्सर।
दे  गया  उनको  ज़माना  शबाब  जा के देख।।

कत्ल  के  बाद बिखेरा  है जिसने  खुशबू  को।
फिर तबस्सुम  लिए  कली गुलाब जा के देख।।

आशिकी रोज बदलती किसी मौसम की तरह।
मनचलों  का  हुआ है वो नबाब जा  के  देख ।।

मासूम   चाहतें  भी  लिख  गयीं  हजारों  ख़त ।
सौदा ए  जिस्म  में आया  जबाब  जा के देख ।।

              --नवीन मणि त्रिपाठी

2 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-02-2015) को "ब्लागर होने का प्रमाणपत्र" (चर्चा अंक-1896) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना प्रस्‍तुत करने के लिए धन्‍यवाद।

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