तीखी कलम से

बुधवार, 1 जुलाई 2015

पिता के नाम

-----पिता के नाम--------

मैं विवश हूँ ।
पल प्रतिपल तुम्हारा मृत्यु
 से संघर्ष ।
असीम वेदना का चर्मोतकर्ष ।
माँ की विलखती आँखे
परिवार की सिसकती आवाजें ।
डगमगाने लगा है
आपका दिया हुआ आत्मबल
का सिद्धांत ।
अदृश्य हाहाकार मन आक्रांत ।
टूटता विश्वास ।
निरंकुश भय का आभास ।
जिसकी ऊँगली पकड़ कर
सीखा था चलना ।
जिसके संस्कारों के आलम्ब ने
सिखाया है उठना ।
मेरे जीवन का श्रेषत्ठम् स्तम्भ।
क्यों तोड़ रहे हो मेरा दम्भ ।
मैं नहीं देख पा रहा हूँ
तुम्हारी यह वेदना ।
मुझे रोज धिक्कारती है मेरी
पौरुष चेतना ।
शक्तिहीनता का बोध कराता काल
निर्मम निष्ठुर विकराल ।
डबडबाई आँखों में निष्तेज
मौन होकर बहुत कुछ
कह जाता है ।
पीड़ा की लहरों का ज्वार
सब कुछ बयां कर जाता है ।
क्या करू मनुष्य ही तो हूँ ....
शायद नहीं पहुच रही ईश्वर तक
मेरी पुकार ।
मुझ पर क्यों नहीं पड़ती उसके
अनुकम्पा की फुहार ।
कर्म फल सुनिश्चित है
अडिग विश्वास
पूर्ण होगी आस
अपने कर्मो पर अटूट भरोसा।
नहीं टूट सकती ये आशा ।
तुम ठीक हो जाओगे ।
 यमद्वार से लौट के घर आओगे ।
अभी बहुत ऋण चुकाने हैं तुम्हारे ।
आखिर तुम पिता हो हमारे ।

        --नवीन मणि त्रिपाठी

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