तीखी कलम से

शनिवार, 25 जुलाई 2015

सनम अब मन्दिरो मस्ज़िद की है ताबीर भी ढहती

ग़ज़ल

यहां  मेरी  कलम  तुझ  पर  कभी तकरीर  न लिखती।
तेरी  तश्वीर   से   मिलती   हुई    तश्वीर  जो  मिलती ।।

खरीदारों  का  मज़मा  लग   रहा  तेरे  हरम  में  अब ।
सुना  तेरी   मुहब्बत  के  लिए   तहरीर  भी   बिकती  ।।

नज़ीरे  हुस्न  हो  अव्वल  तेरी  नजरो  में  जलवा  है ।
करम  हो  जाए  गर  तेरा  कोई  तकदीर  है खुलती।।

मेरा सावन  है  तू आकर  बरस  जा अब  मेरे आँगन।
यहाँ  मुद्दत  से   तुझको  तश्नगी  की  पीर  न  दिखती ।।

अमन   के  वास्ते   घूँघट  में  रहना   लाजिमी  तेरा ।
कयामत   हुश्न  बरपाता  यहॉं  शमसीर  है   चलती ।।

तुम्हारी  हर  तबस्सुम  पर  लिखे  लाखो  ने अफ़साने ।
फना  के  दरमियाँ  मुझको   तेरी  जंजीर  है  खिचती ।।

रोक  लो  इन  अदाओं को तेरी जुल्फें  भी  हैं  कातिल  ।
सनम  अब  मंदिरो  मस्जिद  की  है ताबीर  भी   ढहती  ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी

ताबीर = पवित्रता    तश्नगी=प्यास
शमसीर = तलवार  तहरीर = एप्लीकेशन
तबस्सुम = मुस्कान
दरमिया= दौरान
फना =कुर्बान

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