तीखी कलम से

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

गज़ज़

अब  सियासत  दां  का  ऐसा   पैंतरा  है ।
उसको  दहशत  गर्द कहना  ही  बुरा  है ।।

कातिल  ए   फांसी   पे    मुर्दाबाद    हो ।
वोट  के  मजहब  से  आया  मशबरा  है ।।

बेकसूरों   के    दफ़न   पर    चुप   रहो ।
कुर्सियों   का   ये   पुराना  तफसरा  है ।।

कत्ल  कर आता  मजा  कासिम  को  है।
वह जुबां पर आज भी बिलकुल खरा है ।।

तू    वकालत   दुश्मनो  की   खूब  कर ।
जख्म   तेरे  मुल्क  का  अब भी हरा है।।

स्वर   तेरे  तकसीम  के  खारिज  हुए  हैं।
फिर   वतन  कहने   लगा  तू   बेसुरा  है ।।

है  खबर सबको यहां  फितरत  की अब।
वह ज़हर  से क्यों  बहुत ज़्यादा भरा है ।।

           - नवीन मणि त्रिपाठी

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