तीखी कलम से

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

ग़ज़ल

तुम्हारे पल्लू की खुशबुओं  से मैं रफ्ता रफ्ता  निकल  रहा  हूँ ।
हुश्न   की  मलिका  बज्म  में  तेरे  तिरे लबों से फिसल रहा हूँ ।।



तेज    हवाओं  के   झोकों  में   उड़े  थे   तेरे   जहाँ   दुपट्टे  ।
तुम्हारी जुल्फों का ख्वाब लेकर कूचा  कूचा   टहल रहा हूँ ।।



मेरे  नशे  का  न  राज  पूछो  बिना नशे के  मैं जी  सका न ।
शराब  आधी  शबाब  आधा  मिला  के  दोनों  मचल रहा हूँ ।।



जन्नत के उस हूर  से  ज्यादा  मस्त  अदाएं  तुम रखती  हो ।
तेरी  निगाहों  के जादू  से  नियत  से  मैं  भी  बदल रहा  हूँ।।



लफ्ज  लफ्ज  यूं  ठहरे   ठहरे  दर्द  बहुत  है बिखरा बिखरा ।
गर्म सांस की तपिश से जालिम मैं भी तो कुछ पिघल रहा हूँ ।।



जुर्म  हुआ  इजहारे  मुहब्बत   हुश्न  की  ताना  शाही  भी  है ।
कातिल के हर  फरमानों  से  जज्बातों  संग  सम्भल  रहा हूँ ।।



       -- नवीन मणि त्रिपाठी
फ़ैजाबाद अयोध्या से 6 AM

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