तीखी कलम से

शनिवार, 5 मार्च 2016

लहू गर हो बहुत गन्दा तो गद्दारी नहीं जाती

पराये  मुल्क  से   उसकी   वफादारी  नहीं  जाती ।
लहू  गर  हो  बहुत  गन्दा  तो  गद्दारी  नहीं जाती ।।

वतन के कातिलों  से ये  जमाना  हो गया वाकिफ।
मगर  क़ानून  घायल   हो  तो  लाचारी नही जाती ।।

अमन  जिन्दा रहे  या ख़ाक  हो  जाए फसानों  में ।
सियासत  की जुबाँ से अब तो बीमारी नहीं जाती ।।

जेहन  दारों  से  रोजी  छीन बैठे  हैं  सियासत  दां ।
है  सीना   तान  के  बैठी  ये  बेकारी  नही  जाती ।।

चमन  तकसीम  करने  का  इरादा  जो  लिए  बैठा।
रोजे  में  कबूली   उसकी   इफ़्तारी   नहीं   जाती ।।

बहुत  टुकड़ों में  तुमने  काटना चाहा हमे  अक्सर ।
तिरंगे  से   मिली  मुझको ये खुद्दारी  नहीं  जाती ।।

वो  दहशत  गर्द  हिन्दू  न  मुसलमाँ  न  ईसाई  है ।  
 हुकूमत  हो जो शैतानी तो  मक्कारी नहीं जाती ।।

तू  हिंदुस्तान  से आजाद  होने  का  तकाजा  रख ।
नज़र  से  गिर के भी  बेशर्म  मुख्तारी नही जाती ।।

मदरसे  जो  पढ़ाते  पाठ  दहशत गर्द का दिल्ली ।
रियायत  से  कभी  इनपर  महामारी  नहीं जाती ।।

वो  जिम्मेदारियों  का  हर  लबादा  फेंक  बैठा  है ।
नौकरी  यूं  बड़े   सस्ते  में  सरकारी  नहीं  जाती ।।

कालिख  रोज  धो चेहरे  से पर मिटती नहीं  है ये ।
बयानों  को  बदलने  से  तो दुस्वारी  नहीं  जाती ।।

होश  में आ शहीदों से  गुनाहों पर  तू  कर  तौबा ।।
दुश्मन  ए  हिन्द  तेरी  क्यूँ  नशाकारी नहीं जाती ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-03-2016) को "शिव का ध्यान लगाओ" (चर्चा अंक-2274) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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