तीखी कलम से

सोमवार, 13 जून 2016

बुलबुल नई हवा में चहकती जरूर है

बेशक  वो  आइने  में  संवरती  जरूर   है ।
पर रिन्द  मैकदों   में  बहकती  जरूर   है ।।

हुश्नो  शबाब में है अदाओं का सिलसिला ।

बनके कवल फिजां में महकती जरूर है ।।

आने लगी है याद कोई  मुद्द्तों  के  बाद ।

शायद वो तिश्नगी में  सिसकती जरूर है ।।

शिकवे  शिकायतों  में गुजारी तमाम रात ।

ज़ज़्बात  बेरुखी  में  छलकती  जरूर है ।।

कैसे भुला दूँ  हुश्न  के  हर  इंतकाम  को ।

वो  बात  मेरे  दिल में  ठहरती  जरूर है ।।

सहमे शजर की शाख मुनासिब कहाँ उसे ।

बुलबुल  नयी  हवा में  चहकती जरूर है ।।

है मुन्तजिर वो सिम्त मुहब्बत के दरमियाँ ।

बेख़ौफ़  जफ़ाओं  में  निकलती  जरूर है ।।

परदों  में  रख  तू  बात  है  दीवार बेवफा ।

कुछ  बात  जमाने  में  सुलगती  जरूर है ।।

परवाने  शबे  वस्ल  में  कुरबान  हो   गए ।

इक आरजू  शमा  में  मचलती  जरूर  है ।।

इतना गुमां न कर कभी मिट्टी के ज़ार पर ।

हर शय तो जिंदगी में बिछड़ती जरूर है ।।

       -नवीन मणि त्रिपाठी

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