तीखी कलम से

बुधवार, 15 जून 2016

बे अदब कलमा पढ़ा जाता नहीं

दर्दे दिल  से दम निकल  पाता नहीं ।
अब सितम हमसे  सहा जाता नहीं ।।

घर  मिरा  जलता  रहा  वर्षो  से है ।
आग अब  कोई  बुझा  पाता नहीं ।।

तंज कर  जातीं  तुम्हारी  शोखियां ।
बे अदब कलमा पढ़ा  जाता  नहीं ।।

लिख  रहा  था  जो  हमारी  दास्ताँ ।
मुद्दतो  से  वो   नज़र  आता  नहीं ।।

ऐ  सितमगर है तिरे सर  की कसम ।
मैं  कभी  झूठी  कसम खाता नहीं ।।

रहनुमाई   ने   सिला  ऐसा   दिया  ।
डाकिया भी  खत नया लाता नहीं ।।

डंस  रहीं   नागन  बनी   तन्हाइयां ।
यार  ने  जबसे   कहा   नाता  नही।।

तल्खियों की अब कवायद बन्द हो ।
साथ   मेंरा  अब  उसे  भाता  नही ।।

बादलों  का  है बहुत  तुझपे  करम ।
जुल्म  सावन  भी  वहां  ढाता नहीं ।।

          नवीन

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-06-2016) को "करो रक्त का दान" (चर्चा अंक-2376) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं