तीखी कलम से

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

यह राज ज़माने से छुपाती चली गई

कुछ  फर्ज  शबे  हिज्र निभाती  चली  गयी ।
नजरें  हया  के साथ  झुकाती  चली  गयी ।।

मानिंद   माहताब    मुकद्दर   में  थी  कोई।
गोया कि कहकशाँ  में  समाती चली गयी ।।

अहले सबर के  नाम  फना  वक्त  हो  गया  ।
आई  जो  याद  रात  तो  आती  चली  गई।।

यूँ  मुफ़लिसी के दौर में ये फ़लसफ़ा मिला ।
थी आग  जफ़ाओं  में  जलाती  चली गयी ।।

शायद किसी निगाह को गफ़लत कबूल थी ।
फिर  बददुआ  नसीब  मिटाती  चली  गई ।।

लिक्खे  थे  चन्द  शेर जो  तारीफ में कभी।
बहकी हवा तो खत को उड़ाती चली गयी ।।

ये  मुंतज़िर  थी आँख शमा की  तलास में ।
वह  रौशनी  की  आस दिलाती चली गयी ।।

मेरी   हदों   से   दूर   कोई   इंतखाब   था ।
मेरे   हरम   में  नाज़  उठाती   चली   गई ।।

दर्दे  हयात   दे   के   मयस्सर   सुकूँ   उसे ।
यह  राज  जमाने  से  छुपाती  चली  गयी ।।

---नवीन मणि त्रिपाठी

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