तीखी कलम से

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

पं0 दीन दयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद

   ------ " पं0 दीन दयाल उपाध्याय और एकात्म मानव वाद "------------
            -नवीन मणि त्रिपाठी
देश जब मुगलिया आक्रांत से जूझने के बाद ब्रिटिश के साम्राज्य वाद से संघर्षरत था तब देश में महान चिन्तक और संगठनकर्ता  25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पंडित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जिन्हें आज भी देश की महानतम विभूतियों में से एक मना जा रहा है ।
     दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। कुछ इतिहास कारों का मत है कि पण्डित जी का जन्म अपने पैतृक गाँव में ही हुआ था । पंडित उपाध्याय जी के माता पिता का निधन उनकी बाल्यावस्था में ही हो गया था । अतः दीनदयाल जी का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड,मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाकर कीर्तिमान स्थापित किया था ।
      मात्र 14 वर्ष की आयु में इनके अनुज   शिवदयाल का देहान्त हो गया।1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान लाकर सबको अचंभित कर दिया । जीवन के अनुकूल परिस्थियों में तो सभी उन्नति कर लेते हैं परंतु इतनी विपरीत परिस्थिति के उपरांत भी पण्डित उपाध्याय ने जिस संयम के साथ उन्नति के शिखर बिन्दुओं को छुआ वह निश्चय ही असाधारण उपलब्धि ही थी । पण्डित जी ने अनेकों गोल्ड मेडल जीता ।
         इनके मामा जी ने इन्हें अपने बच्चों की तरह ही पाला पोषा ।जैसा कि कहा गया है  कि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात " अतः बचपन में ही पंडित जी  विलक्षण प्रतिभा के धनी थे ।
मामी के आदेश पर उन्होंने सिविल सेवा का फार्म भर दिया था । पंडित जी ने परीक्षा को श्रेष्ठतम अंको से उत्तीर्ण कर सबको अपनी असाधारण बौद्धिकता से कायल कर दिया । बहुत समझाने के उपरांत भी पं0 उपाध्याय ने नौकरी करना स्वीकार नही किया । घर गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर जनसंघ को सब कुछ अर्पित  करने का मन बना चुके पण्डित जी के कदम राष्ट्र सेवा की ओर बढ़ चुके थे । उनकी इस भावना से  इनके  पालन-कर्ता मामा जी काफी दुखी हुए । अतः दीनदयाल जी ने उनसे एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र  आज एक ऐतिहासिक धरोहर है । सन् 1942 से उन्होंने संघ के प्रचारक का कार्यभार  गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से आरम्भ कर दिया । 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।
जैसा की उस समय पण्डित नेहरू मुस्लिम तुष्टिकरण नीति को कांग्रेस में थोप रहे थे अतः ऐसी स्थिति में 1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। मुखर्जी जी  राष्ट्र वादी विचारों के साथ  एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री बनाये गए इसके उपरान्त उन्हें महामन्त्री बना कर महत्वपूर्ण दायित्व दे दिया गया ।
       पण्डित जी महान दूरदर्शी थे । आर्थिक बिंदुओं पर उनका चिंतन अद्भुत था । उन्होंने देश लिए अर्थ शास्त्र पर भी बहुत कुछ लिखा । एक बार वह ट्रेन से  झाँसी से  इलाहाबाद जा रहे थे । ट्रेन में एक दलित बालक जूते पालिस की आवाज लगाते हुए आया । पंडित जी के सामने वाली सीट पर एक सज्जन ने बूट पालिस के लिए आवाज दिया । बूट पालिस के लिए वह दलित बालक दौड़ कर आ गया। सामने वाले सज्जन ने बालक से पूछा - " तुम्हारे पास बूट  की पालिस में चमक बढ़ाने के लिए कपड़े हैं ? बालक ने नहीं कहने के लिए सर हिलाया । उसके नहीं कहने पर सामने वाले सज्जन ने पालिस से मना कर दिया । यह सब पण्डित जी देख रहे थे । उनहोंने अपना गमछा फाड़ कर उस पालिस वाले बच्चे को दे दिया ।
       बाद में जब इलाहाबाद पहुचे तो लोगों ने फटे गमछे के बारे में पूछा तो पण्डित जी ने कहा गमछा अगर थोडा फट गया तो भी मेरा काम चल जा रहा है लेकिन यदि उसको कपड़े नही देता तो उसके घर में काम नही चलता ।
   शायद उनका यह मौलिक चिंतन ही उन्हें अर्थ शास्त्र के नए सिद्धांतो के लिए प्रेरित कर गया ।
       जैसा कि सम्पूर्ण विश्व को विदित है कि
भारत वर्ष में अनेक महापुरूषों ने जन्म लिया है । जिसमे से  पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी बिलकुल अलग थे । इनके सिद्धांत और इनका दर्शन पूर्ण रूप से मौलिक और एक नए युग का सूत्रपात करता है । पंडित दीनदयाल उपाध्याय की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना है । भारतीय राजनीति में उच्च से उच्चतर पद पाने के अनेक अवसर उनके समक्ष थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक राष्ट्रसेवक के रूप में ही स्थापित किया । देश के प्रति उनका चिंतन अत्यंत विशिष्ट था ।  उन्होंने स्पष्ट किया था कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही देश की वास्तविक शक्ति  है ।अपनी इसी शक्ति से वह एक दिन दुनियां का नेतृत्व कर्ता बनने में कामयाब होगा ।
वर्षों पूर्व उनके द्वारा यह सैद्धांतिक विचार  आज फलित होता प्रतीत हो रहा है ।
भारत की सांस्कृतिक विरासत पूरी दुनिया को प्रकाशित कर रही है और शायद वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व गुरु के रूप में पहचाना जाएगा ।
पण्डित जी  विद्यार्थियों के लिए अपना  विशेष लगाव रखते थे ।  उनकी इच्छा थी कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें. उन्हें इस बात का अफ़सोस रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो पूरी तरह जागरूक रहते  हैं परंतु कर्तव्य पूर्ति की भावना नहीं के बराबर है । कर्तव्य के साथ अधिकार स्वयं प्राप्त होता है वे इस बात के घोर समर्थक थे ।  अपने जीवन में एकात्म मानववाद के  जिस सिद्वांत प्रतिपादन किया, वह आज वर्षों बाद भी पूर्ण रूप से  सामयिक बना हुआ है.
   एकात्म मानववाद के प्रणेता जन्मदाता  पं0 दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष को यदि विश्व में पहचान मिलेगी तो उसके मूल में भारतीय संस्कार व् संस्कृति ही होगी । एकात्म मानववाद ही  वर्तमान समस्याओं का निराकरण करने में संभव है । पं0 उपाध्याय के अनुसार मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है । जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है ।यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद  के सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया ।
      पंडित जी के इस सिद्धांत को हमे  और सुगमता से समझने के लिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि
पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के घोर विरोधी थे । पाश्चात्य संस्कृति में मनुष्य को राजनैतिक पशु कहा गया जिसे दीनदयाल जी ने अस्वीकार
कर दिया । लोग लेनिन , मार्क्स , साम्य वाद से ऊब रहे थे । पूँजी वाद भी कही से सुकून नही दे पा रहा था । अमेरिका पूँजी वाद का समर्थक देश भी अपने नागरिकों को वास्तविक सुख नहीं दे सका । अमेरिका में भी लोग तरह तरह की बीमारियों और समस्याओं से ग्रस्त पाये गए । लोग आज भी वहां डिप्रेशन की वजह से नींद की गोली खाने के लिए विवस होते हैं । लेनिन या मार्क्स वाद से समस्या के निदान की जगह समस्याएं और बढ़ती हुई नज़र आईं । रूस भी अपने नागरिकों को वास्तविक सुख देने में नाकामयाब ही रहा । बेशक इन देशो ने तकनीकी के क्षेत्रों में अत्यधिक उन्नति कर ली है परंतु आत्मिक उन्नति के क्षेत्र में वे बहुत पीछे हैं । जब तक मानव का समग्र विकास नही होगा तब तक सुख शांति की कल्पना करना भी निरर्थक ही होगा । पंडित जी का मानना था की हमेशा श्रेष्ठता को ग्रहण करना चाहिए अश्रेष्ठता को छोड़ देना चाहिए । पाश्चात्य तकनीक को खुले दिल से अपनाओ परंतु पाश्चात्य संस्कृति से दूर रहो क्योंकि इसमें मानव कल्याण के लिए बहुत सी खामियां हैं ।
     पण्डित जी ने आत्मा मन शरीर  धर्म राष्ट्र विश्व फिर ब्रह्माण्ड में सम्बन्ध स्थापित करने वाले सिद्धांत की व्याख्या की । उनका मनना था कि आत्मा मन शरीर धर्म राष्ट्र विश्व और ब्रह्माण्ड का आपस में गहरा सम्बन्ध है । इन सबको अलग अलग करके जीवन की कल्पना करना दुःख को आमन्त्रित करने के समान है । अतः आत्मा को स्वस्थ मन और स्वस्थ मन को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ शरीर को स्वस्थ धर्म और धर्म से स्वस्थ राष्ट्र स्वस्थ राष्ट्र से स्वस्थ विश्व और स्वस्थ विश्व से ही स्वस्थ ब्रह्माण्ड का निर्माण संभव है । अतः सभी चीजें एक दूसरे की पूरक हैं । इनमे से कोई कड़ी यदि ख़राब हो और उसे ठीक कर दिया जाए तो बाकी चीजें अपने आप ठीक हो जाती हैं । यहीं से एकात्म मानव वाद भी परिभाषित हो जाता है । एकात्म मानववाद का दर्शन पण्डित जी की ही खोज है जिस पर आज भारतीय जनता पार्टी निरंतर कार्य कर रही है परिणाम स्वरुप देश तकनीकि उन्नति के साथ साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत से सम्पूर्ण विश्व को आकृष्ट कर रहा है ।
    पंडित जी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत को ही अपना केंद्र बिंदु बनाया।  उन्होनें कहा था कि "संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है  । इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है । संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है  । इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है । जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है । उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही सम्भव है ।
पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण का ही परिणाम है कि लोग  धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है । पंडित जी ने कहा था कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं ।
    पंडित जी ने वैचारिक क्रांति के लिए ही राष्ट्र धर्म प्रकाशन संस्थान की स्थापना लखनऊ में की थी । देश को सही दिशा देने के उद्देश्य से उन्होंने एक बैठक में ही चन्द्रगुप्त नाटक लिखकर सबको अचंभित कर दिया था ।साप्ताहिक पत्रिका पाञ्चजन्य और दैनिक स्वदेश की शुरुवात भी पण्डित जी के द्वारा ही हुई ।
           देश के सम्बन्ध में पंडित जी का मनना था कि "कोई देश एक लोगों का समूह है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श और एक मिशन के साथ जीते हैं और धरती के एक टुकड़े को मातृभूमि के रूप में देखते हैं. अगर आदर्श या मातृभूमि - इन दोनों में से एक भी नहीं है तो देश का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता " इसी क्रम उन्होंने कहा था कि "भारत को हमने अपने समक्ष मानव के पूर्ण विकास के लिए मन बुद्धि और आत्मा की आवश्यकताओं की पूर्ती चार स्तरीय जिम्मेदारियों का आदर्श रखा है । " अतः यदि इन जिम्मेदारियों का निर्वहन भली प्रकार हुआ तो देश स्वतः ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । स्वभाव को धर्म के अनुसार बदलने के उपरांत ही संस्कृति और सभ्यता की प्राप्ति सम्भव है । तानाशाही पर उनके विचार स्पष्ट थे । जब कोई राज्य राजनैतिक और आर्थिक शक्तियों का अधिग्रहण कर लेता है तो राज्य में धर्म का पतन निश्चित हो जाता है ।
     जब भी हम राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा करेंगे तो राष्ट्र नाना प्रकार की समस्याओं से घिरता ही जाएगा । पण्डित जी मानते थे की अवसरवादी राजनीति से लोकतन्त्र छला जाता है । जनता का विश्वास खोता है अतः वे साफ सुथरी राजनीति के प्रबल समर्थक थे ।
   पण्डित जी ने कहा था की पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी विज्ञानं यह दोनों अलग अलग वस्तु हैं । हमें आगे बढ़ने के लिए पश्चिम के विज्ञानं को स्वीकार करना चाहिए परंतु संस्कृति भारत की ही सर्वश्रेष्ठ है । भारतीय मुसलामानों के प्रति पण्डित जी की अवधारणा अत्यंत पावन और स्तुति योग्य थी । वह कभी मुसलमानो को भारतीय संस्कृति से अलग नहीं मानते थे । पंडित जी के शब्दों को मैं यहाँ यथावत ही प्रस्तुत कर रहा हूँ । उन्होंने बड़े ही स्पष्टता के साथ कहा था कि " मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और खून का खून है । "
   इस तरह से उन्होंने अपने विचारों को जन जन तक पहुचाने के लिए अनेक आलेख् अनेक पुस्तके लिखी जिसमे से
दो योजनाएँ ,राजनीतिक डायरी,भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन ,सम्राट चन्द्रगुप्त ,जगद्गुरु शंकराचार्य, औरएकात्म मानववाद (अंग्रेजी: Integral Humanism)राष्ट्र जीवन की दिशा उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं ।
     अंततः वह दिन आ ही गया जब भारत के इस दार्शनिक महापुरुष के जीवन का अंत 11 फरवरी 1968 को हो गया । देश का एक महत्वपूर्ण   चिराग बुझ गया । पंडित जी मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर प्रातः काल मृत पाये गए । उनके मौत की गुत्थी आज भी एक अनसुलझी पहेली ही है ।

           -- नवीन मणि त्रिपाठी
      दूरभाष 9839626686 
   

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