तीखी कलम से

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

जाती तेरे मिज़ाज से क्यूँ बेरुख़ी नहीं

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बुझते    रहे   चिराग   गई    तीरगी   नही ।
फिर  भी हवा के रुख से मेरी दुश्मनी नही ।।


आ  जाइए   हुज़ूर   मुहब्बत   के    वास्ते ।
दैरो   हरम  में  आज  कहीं  बेबसी  नहीं ।।


बहकी  अदा  के  साथ बहुत आशिकी हुई ।
गुजरी  तमाम  रात  मिटी   तिश्नगी   नहीं ।।


कब से नज़र को फेर के बैठी है वो सनम ।
शायद  मेरे  नसीब  में  वो  बात ही नहीं ।।


माना कि गैर से है ये वादा भी वस्ल का ।
उल्फ़त की बेखुदी में कहीं रौशनी नही ।।


तेरा वजूद  है तो  सलामत  है  ये  शहर ।
वरना  मेरी  किसी  से  क़ोई बन्दगी नहीं ।।


मुझको  मिले  हैं  दर्द  वफ़ा की तलाश में ।
जाती  तेरे  मिजाज  से  क्यूँ  बेरुखी  नहीं ।।


मुमकिन है मैकदों में रकीबों की शाम हो ।।
यह बात सच नही कि वहां मयकशी नही ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

तुम बेखुदी में बस ज़फ़ा पढ़ते गए

‌2212  2212 2212 
दीवानगी   में  हम  वफ़ा   लिखते  गए । 
तुम बेखुदी  में  बस  जफ़ा  पढ़ते  गए ।।

पूछा   किया  वो  आईने   से   रात  भर ।
आवारगी  में   हुस्न   क्यूँ  ढलते   गए ।।

आयी तबस्सुम जब मेरी दहलीज पर ।
देखा  चिराग़े  अश्क  भी  जलते  गए ।।

नादानियों   में   फासलो   से  बेखबर ।
बस जिंदगी भर  हाथ  को  मलते गए ।।

तालीम  ले  बैठा था जब  इन्साफ  की ।
क्यूँ   मुज़रिमो  के  फैसले  रुकते गए ।।

जिसकी    बेबाकी   के  चर्चे  थे   बहुत ।
तहज़ीब  को  अक्सर  वही  छलते  गए ।।

लफ्जों  की  रंगत  दर्द  से  फीकी  लगी ।
पर्दे   में  आए   नाग  जब   डसते   गए ।।

नाज़ो नफ़स के साथ था महफ़िल गया ।
शिकवे  गिले  सब रात भर सुनते गए ।।

आई   हुई   है  तिश्नगी   जिस  रोज  से ।
बहकी  नज़र  की  धार  में  बहते  गए ।।

काटे  गए  जंगल थे  जिसकी  खौफ  में ।
वो  भेड़िये   फिर  गाँव  में  पलते  गए ।।

आबाद  हो   जाती   मुकम्मल   तीरगी ।
बुझती  शमा   के   हौसले  बढ़ते   गए ।।

         नवीन मणि त्रिपाठी

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

हर मयक़शी के बीच कई सिलसिले मिले

221 2121 1221 212

हर मयकशी के बीच कई  सिलसिले मिले ।
देखा  तो  मयकदा  में  कई मयकदे  मिले ।।

साकी शराब डाल के हँस  कर के यूं  कहा।
आ   जाइए    हुजूर   मुकद्दर  भले   मिले ।।

कैसे   कहूँ   खुदा  की  इबादत  नहीं  वहां ।
रिन्दों के  साथ में भी नए  फ़लसफ़े  मिले ।।

यह बात और  है की  उसे  होश  आ  गया ।
वरना   तमाम  रात  उसे   मनचले   मिले ।।

जिसको फ़कीर जान के करता था एहतराम।
चर्चा  उसी  के  घर  में   ख़ज़ाने  दबे  मिले ।।

मुझ से न पूछिए कि  ज़माने  से क्या मिला ।
बदले  मिज़ाज़ ले  के  यहाँ  सिरफ़िरे  मिले ।।

पीना गुनाह  था  तो शराफ़त क्यूँ  छोड़ दी ।
कुछ   दाग  उसूलों  में  बड़े    बेतुके  मिले ।।

बेचैनियाँ     सबूत     हजारों    बता   गयीं ।
अक्सर  ही  सिलवटों  में  तेरे  बिस्तरे मिले ।।

क़ातिल तेरी निगाह में कुछ ख़ासियत तो है ।
दीवानगी    में   लोग   बहुत   गमज़दे   मिले ।।

हुस्नो शबाब भर  के जो बोतल  उछाल  दी ।
साकी   शरीफ़  लोग  शराफ़त  कटे   मिले ।।


                 --- नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल -- ये बात और है तेरा ख़याल आज भी है

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किसी की याद में जलती मशाल आज भी है ।
इन आँसुओं में सुलगता सवाल आज भी है ।।

न पूछ मुझसे मुहब्बत के दौर का वो सफर ।
ये बात और  है  तेरा  ख़याल आज भी है । 

वो इश्क बेच  के आया  है रात  भर के लिए ।
तेरे  दयार  में  रहता  दलाल  आज  भी  है ।।

तमाम दर्द का  लिक्खा  पयाम पढ़ तो सही ।
खतों के साथ में जिन्दा मिशाल आज भी है ।।

यहाँ खुली  हैं  दुकानें   तिज़ारतों  की  मगर ।
नई  बज़ार   में  देखा  उछाल  आज  भी  है ।।

शरीफ़   लोग  हैं  इनको  न  बे  इमान  कहो  ।
शराफ़तों  में   ठहरता  मज़ाल आज  भी  है ।।

नज़र  नज़र  की  वो  रंगीनियाँ  न  भूल  सके ।
वो  रंगतों  की  निशानी  गुलाल आज भी  है ।।

बहुत  जुदा है इबादत  की  रौशनी  का असर।
बड़ा यतीम था  कायम  धमाल आज  भी  है ।।

हरेक जख़्म को   मैंने  ग़ज़ल के साथ पढ़ा ।
अदा अदा में कशिश है कमाल आज भी है ।।

पड़ी  जो   एक   नज़र  हुस्न  वो  शराब  हुई ।
ये होश खो के वो  होता हलाल आज भी है ।।

सबूत   माँग   न  मुझ  से   मेरे  हबीब  ठहर ।
मेरे  नसीब में  भीगी  रुमाल  आज   भी  है ।।

वो मैंक़दों  का  चलन  तिश्नगी के साथ चलो ।
अजीब  इश्क़ था  मुझको मलाल आज भी है ।।

             -- नवीन मणि त्रिपाठी