तीखी कलम से

सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

जाती तेरे मिज़ाज से क्यूँ बेरुख़ी नहीं

221 2121 1221 212 
बुझते    रहे   चिराग   गई    तीरगी   नही ।
फिर  भी हवा के रुख से मेरी दुश्मनी नही ।।


आ  जाइए   हुज़ूर   मुहब्बत   के    वास्ते ।
दैरो   हरम  में  आज  कहीं  बेबसी  नहीं ।।


बहकी  अदा  के  साथ बहुत आशिकी हुई ।
गुजरी  तमाम  रात  मिटी   तिश्नगी   नहीं ।।


कब से नज़र को फेर के बैठी है वो सनम ।
शायद  मेरे  नसीब  में  वो  बात ही नहीं ।।


माना कि गैर से है ये वादा भी वस्ल का ।
उल्फ़त की बेखुदी में कहीं रौशनी नही ।।


तेरा वजूद  है तो  सलामत  है  ये  शहर ।
वरना  मेरी  किसी  से  क़ोई बन्दगी नहीं ।।


मुझको  मिले  हैं  दर्द  वफ़ा की तलाश में ।
जाती  तेरे  मिजाज  से  क्यूँ  बेरुखी  नहीं ।।


मुमकिन है मैकदों में रकीबों की शाम हो ।।
यह बात सच नही कि वहां मयकशी नही ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी

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