तीखी कलम से

शनिवार, 5 नवंबर 2016

तेरी बदसलूकियों पर मुझे रूठना न आया

ग़ज़ल

1121 2122  1121 2122
था नसीब  का  तकाजा  वो  बना  ठना  न आया ।
मेरे  गर्दिशों  का  आलम  तुझे  देखना  न आया ।।

कई जख़्म  सह  गए  हम ये  निशान  कह रहे  हैं ।
तेरी  बदसलूकियों   पे , मुझे   रूठना   न  आया।।

ये वफ़ा की थी तिज़ारत,मैं समझ सका न तुझको ।
है सितम  का  इन्तिहाँ ये , मुझे  टूटना  न   आया ।।

हुए हम  भी बे खबर  जब,वो नई  नई  थी  बंदिश।
वो  ग़ज़ल  की  तर्जुमा  थी , हमे  झूमना न आया ।।

था  सराफ़तों   का  मंजर ,वो   झुकी  हुई  निगाहें ।
बड़ी  तेज  आंधियाँ  थीं , कभी  लूटना  न आया ।।

ऐ बहार  मत  गुमां  कर,तू  खुदा  की  रहमतों  पर ।
मैं शजर हूँ उस खिजाँ का, जिसे सूखना न आया ।।

ये है मनचलों की बस्ती,न उठा के चल तू चिलमन।
यहां   बेअदब    ज़माना , तुझे   घूमना   न  आया ।।

न सुना तू  वो कहानी ,जो  थी  मैकदों  पे  गुजरी ।
वो शराब थी  नज़र  की, जिसे  घूटना  न आया ।।

है गिरफ्त में  नशेमन , हैं  जमानतें  भी   ख़ारिज ।
ये तो इश्क की सजा है  कभी  छूटना  न  आया ।।

रहे  देखते   किनारे , वो   नदी    की   तिश्नगी  थी ।
था जो गफलतों  में  सागर ,उसे  ढूढ़ना  न  आया ।।

जो तड़प तड़प के लिक्खी न वो मिट सकी इबारत।
हैं  गमों  के हर्फ़ जिन्दा  हमें भूलना ना  न  आया ।।                            

                       -- नवीन मणि त्रिपाठी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें