तीखी कलम से

शनिवार, 5 नवंबर 2016

है जिस पे कत्ल का इल्जाम वो मासूम लगता है

1222 1222 1222 1222
तू बचकर चल, जमाना ये बड़ा मरहूंम लगता है ।
है जिस पे कत्ल का इल्जाम वो मासूम लगता है ।।

पढ़ी है कुछ लकीरे जब से वो तकदीर की मेरी ।
मुझे हंसकर कहा  उसने कोई  मादूम  लगता है ।।

गुलामी पर बहस अब  बन्द होनी  चाहिए  यारों ।
सुना है  कह रही है वो , मेरा  मख़्दूम  लगता है ।।

ये राजे ग़म न तुम पूछो,बयां करना भी मुश्किल है।
इरादा   क्यों  मुझे   तेरा  यहां  मक्तूम  लगता  है ।।

न जाने क्यूँ उसे हर बार शक़  होता  रहा हम पर ।
नई फ़ितरत का आशिक़ है जरा मग्मूम लगता है ।।

शराफ़त से अदावत है उसे  परवाह ही  किसकी ।
हैं उसकी  हरकतें ऐसी कि वो  मज्मूम लगता है ।।

बिसातें बिछ चुकी हैं चाल  का अंदाज शातिर है ।।
बदलना इस तरह लहजा सही मजऊम लगता है ।।

 नवीन मणि त्रिपाठी 

शब्दार्थ

मा'दूम....(फ़ना)
मख़्दूम  ....स्वामी, आका
मक्तूम .....छिपा हुआ
मज्ज़ूम   ...निश्चित
मरहूम  ... स्वर्गवासी
मग्मूम   ...दुखित, रंजीदा
मज़्ऊम  ..विचारा हुआ, सोचा हुआ
मज़्मूम    ..अश्लील निंदित

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