तीखी कलम से

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

थी हराम की जो रकम मिली उसे वक्त पे न खपा सका

11212   11212   11212   11212
नए  हादसों  का  ये  दौर है कई जख़्म थे न बता  सका ।
है  तिजोरियों पे  मुसीबतें मैं सुकूं अमन भी न ला सका ।।

पली मुद्दतों से जो ख्वाहिशें  वो चली गयीं  हैं  गुमान से ।
थी हराम की जो रकम मिली उसे वक्त पे न खपा सका ।।

ये अजीब मुल्क परस्तियाँ  ये  नया नशा भी  कमाल है ।
तू उजाड़ दे न ये घर मेरा तुझे  मुल्क  से  न  हटा सका ।।

बड़ी कोशिशें पे नज़र हुई वो न कुर्सियों पे सभंल सकें । 
वो मुकाबलों का निजाम है न मिटा सका न हरा सका ।।

तेरे  फैसलों  ने  सितम  किये  मेरी आबरू भी जुदा हुई ।
है चुनाव सर पे खड़ा हुआ मैं हिसाब तक न लगा सका ।।

          ---नवीन मणि त्रिपाठी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें