तीखी कलम से

रविवार, 22 जनवरी 2017

ग़ज़ल -रुख से जुल्फें हटाया करो

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रुख   से   जुल्फें    हटाया   करों ।
तुम नज़र  यूं   ही  आया    करो ।।

खत्म     हो     जायेगी    तीरगी ।
तीर     हँसकर    चलाया   करो ।।

चाँद  पर   हक़   हमारा   भी  है ।
अब  तो  नज़रें   मिलाया  करो ।।

है  अना    ही   अना    चार   सू ।
जुल्म   इतना   न  ढाया   करो ।।

कर   दो  आबाद   कोई   चमन ।
खुशबुओं    को   लुटाया   करो।।

बारहा   जिद   ये   अच्छी   नही ।
बात   कुछ   मान   जाया  करो ।।

गो  ये  सच   है  की   मजबूर  हूँ ।
आइना   मत    दिखाया    करो ।।

है   ज़रूरी    तो    जाओ   मगर ।
वक्त   पर   लौट   आया    करो ।।

बेवफा    मत   कहो   तुम   उसे ।
साथ   तुम  भी   निभाया   करो।।

जिंदगी    का   भरोसा   ही  क्या ।
दिल   किसी   से  लगाया   करो ।।

सो   न    जाए    कहीं   हुस्न   ये ।
इश्क   को  तुम   बुलाया   करो ।।

जख़्म     रोशन    रहे   उम्र   भर ।
बिजलियाँ  कुछ   गिराया    करो ।।

               -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - जुर्म की हर इंतिहा को पार कर जाते हैं लोग

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इस  तरह  कुछ जोश में हद से गुज़र जाते  हैं लोग।
जुर्म  की  हर  इन्तिहाँ  को पार कर  जाते हैं लोग ।।

हर  तरफ  जलते   मकाँ   है  आदमी  खामोश  है ।
कुछ  सुकूँ  के वास्ते  जाने  किधर  जाते  हैं लोग ।।

अहमियत रिश्तों  की  मिटती जा रही इस दौर में ।
है कोई शमशान वह अक्सर जिधर जाते हैं लोग ।।

यह शिकन ज़ाहिर न हो चेहरा न हो जाए किताब।
आईने  के  सामने   कितना  सवर जाते  हैं लोग।।

गाँव  खाली  हो  रहा  कुछ   रोटियों   की  फेर में ।
माँ का आँचल छोड़ कर देखो शहर जाते हैं लोग।।

बाप  की  थीं  ख्वाहिशें  बेटा  निभाए  उम्र  तक  ।
हो बुढ़ापे का  तकाजा  तो  मुकर  जाते  हैं लोग ।।

देखिये   मतलब  परस्ती  का   ज़माना  आ  गया ।
मांगिये  थोड़ी  मदद  तो  खूब  डर जाते  हैं लोग ।।

कौन   कहता  दौलतों   से  वास्ता   उनका   नहीं ।
कुर्सियो  पर  बैठकर  काफ़ी निखर जाते हैं लोग ।।

ऐ  मुसाफिर  यह  हक़ीक़त  भी  हमे  मालूम   है ।
इश्क़ में कुछ ठोकरें  खाकर बिखर जाते हैं लोग ।।

बिक गया मजबूरियों  के नाम  पर  वह हुस्न भी ।
घुंघरुओं  के  बज्म  में  चारो  पहर जाते हैं लोग ।।

भूल  जाना  भी  मुकद्दर  का  बड़ा  तोहफ़ा यहां ।
दर्द  की  तासीर  बन  दिल में ठहर जाते हैं लोग ।।

               --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -चाँद को जब भी सवांरा जाएगा

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चाँद   को   जब  भी  सवाँरा   जाएगा ।
टूट   कर    कोई    सितारा    जाएगा ।।

है  कोई   साजिश  रकीबों   की  यहाँ ।
जख़्म दिल का  फिर उभारा  जाएगा ।।

सिर्फ मतलब के  लिए मिलते हैं लोग । 
वह  नज़र   से  अब  उतारा  जाएगा ।।

कुछ  अदाएं  हैं  तेरी  कातिल   बहुत ।
यह  हुनर   शायद  निखारा  जाएगा ।।

रिंद  है  मासूम   उसको  क्या  खबर ।
जाम   से  बे   मौत   मारा    जाएगा ।।

उम्र   गुजरी   है   वफादारी  में   सब ।
बेवफा    कहकर   पुकारा   जाएगा ।।

टूट  जायेंगी  वो   दिल  की  बस्तियां ।
गर   तुम्हारा   इक  इशारा   जाएगा ।।

मुंतज़िर   वह    आरज़ू    मायूस   है ।
वस्ल   का  तनहा   सहारा   जाएगा ।।

ज़ार मिट्टी का है मत  इतरा  के चल ।
हर  गुमां इक  दिन तुम्हारा  जाएगा ।।

हिज्र में कुछ ज़िद का आलम देखिए ।
वह   ज़नाज़े   में   कुँवारा   जाएगा ।।

ठोकरों    के    बाद    भी   दीवानगी ।
मैकदों   में    वह   दोबारा   जाएगा ।।

ख्वाब में शब्  भर  रही तुम  साथ में ।
दिन  भला  कैसे   गुज़ारा   जाएगा ।।

क्या  हुआ गर  चाँद  में कुछ  दाग है ।
ईद  की   ख़ातिर   निहारा   जाएगा ।।

     -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - ख़बर पूरी है उसको रहजनों की

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नई   तादात   देखी   कातिलों  की ।
है चर्चा  फिर तुम्हारी रहमतों  की ।।

मयस्सर   जिंदगी  होती   दुआ  से ।
उसे अब याद  आई  मजहबों  की ।।

बहुत  अच्छा  लगा  जो आ गए हो ।
हमें  तो  फ़िक्र  थी  तेरे  ख़तों  की ।।

जो संगे दिल लिए फिरते थे अक्सर।
कहानी  लिख रहे  हैं आसुओं  की ।।

दुपट्टा  क्यूँ   सरक जाता  है  उसका ।
खबर  पूरी  है उसको  रहजनों  की ।।

बहक जाना  मुनासिब हो  गया  था ।
यही  फ़ितरत  बनी थी   मैकदों  की ।।

यहाँ   बदनामियाँ  हासिल   हुई   हैं ।                         है  इतनी सी निशानी मंजिलों   की ।।

नज़र  तहज़ीब  क्यूँ   खोने  लगी  है ।
दिखी  जुर्रत  बहुत  गुस्ताखियों  की।।

     -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - झोंका कोई हिज़ाब उठाता ज़रूर है

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जुर्मो  सितम  में  उसके  इज़ाफ़ा  ज़रूर  है ।
चेहरा  जो   आईनो  से  छुपाता  ज़रूर  है ।।

गोया   वो   मेरा   साथ  निभाया  ज़रूर  है ।
पर   हुस्न   का   गुरूर  जताता   ज़रूर है ।।

महफ़ूज़   मुद्दतों   से   यहां  दिल  पड़ा रहा ।
तुमने    मेरा   गुनाह   संभाला   ज़रूर  है ।।

बेख़ौफ़  जा  रहा  है वो  बारिश  में देखिये ।
शायद किसी  से  वक्त  पे  वादा  ज़रूर है।।

आबाद   हो  गया  है  गुलिस्तां  कोई  मगर ।
निकला किसी के घर का दिवाला ज़रूर है।।

गुम हो सके न आज तलक  भी ख़याल से ।
मैंने     तेरा    वज़ूद    तलाशा   ज़रूर  है ।।

सच  है  जमीं  पे  चाँद  उतारा  खुदा  ने  है ।
झोंका   कोई   हिजाब   उठाता  ज़रूर  है ।।

उसके  हुनर  को  दाद  है  कारीगरी  गज़ब ।
फुरसत  के साथ  जिस्म  तरासा  ज़रूर है ।।

नज़रें  हया  के  साथ  झुकाने  लगी  हैं  वो ।
पढ़िए जरा  वो शक्ल  खुलासा  ज़रूर  है ।।

काबिल नहीं था इश्क के यह बात है गलत ।
मुझको  मेरा   ज़मीर   बताता   ज़रूर  है ।।

                --नवीन मणि त्रिपाठी