तीखी कलम से

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

ग़ज़ल -था बारिशों का दौर समंदर मचल गया

*221  2121  1221  212*

सारा  चमन गुलाब था अश्कों  में ढल गया ।
था  बारिशों  का  दौर समंदर मचल  गया ।।

रुसवाईयां  तमाम  थीं  दिल में  मलाल  थे ।
देखा जो हुस्न आपका पत्थर पिघल गया ।।

खुशबू   बनी  हुई  है  अभी  तक दयार  में ।
महबूब  मेरा ख्वाब  में आकर  टहल  गया ।।

कैसा नशा था इश्क़ में मदहोशियों के बीच ।
जो भी थे दफ़्न राज़ वो पल में उगल गया।।

जब  मैं जला तो लोग बहुत जश्न में मिले ।
जैसे  किसी नसीब का सिक्का उछल गया ।।

कहता था है ये आग का दरिया न इश्क कर। 
सुनता  हूँ  चैन  भी  तेरा है आजकल गया।। 

कच्ची  सी  बस्तियोंं में हैं  सस्ते जवाहरात ।
कीचड़ के आस पास में देखा कंवल गया ।।

महफ़िलमें क्या नज़र मिली जोआपसे हुजूर।
मुद्दत  के  बाद दिल भी हमारा बहल गया।।

उसने  कहा  था   साथ  निभाएंगे  उम्र  भर ।
इंसान  चन्द  रोज  में  कितना  बदल  गया ।।

मिलती  कहाँ  दुआ  है  मुहब्बत  के वास्ते ।
आई कभी खुशी तो दिवाला निकल गया ।।

वो  जिस्म  था  कि  आग यही  सोचते  रहे ।
जब  भी गया करीब  लहू तक उबल गया ।।

             ,--नवीन मणि त्रिपाठी
                 मौलिक अप्रकाशित


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